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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


इसलिए यही तय हुआ। तभी शीला के लिए 'कटकी' साड़ी खरीदी जाने लगी और तीर्थ-क्षेत्र में बिकने वाले कांसे के बर्तन खरीदे जाने लगे। फिर दूसरी यात्रा के बारे में छान-बीन शुरू होने लगी।

अकस्मात् जैसे दरवाजे के पास बम फटा हो।

''पूछता हूँ, आज चाय-वाय नहीं बनेगी?''

अनुपमा घबराकर घड़ी की ओर देखने लगी...चार बंजकर चालीस मिनट। बड़ी मुसीबत है। ठीक चार बजे होता है तारकनाथ का 'टी टाइम'।

समय गुजरते ही तारकनाथ के दिल की बीमारी बढ़ जाती है।

अचानक इस सवाल की मार से दिल की हालत कुछ भी हो, चेहरे को ठीक-ठाक रख, अनुपमा ने सहज खेद भरे स्वर में कहा, ''हाय राम! इतनी देर हो गयी! अरी शीला, तू तो अच्छी लड़की है। माधो की भी क्या मति-गति है? बेसुध पड़ा सो रहा होगा।''

"सच,'' स्वर में जितनी भी सम्भव हो, उतनी कड़वाहट मिलाते हुए तारकनाथ ने कहा, ''दिहाड़ी पर रखे नौकर-चाकरों की अक्ल ही काम देगी।''

पति की बात के जवाब में अनुपमा की जीभ पर कोई बात आ गयी थी-बिना महीने की नौकरानी के विवेक की बात। लेकिन उसने कहा नहीं।

''देखो न, बेटा फिर तबीयत खराब है, कहकर सो गया है। क्या पता कहीं

बुखार-बुखार न हो जाए।''

इसके बाद का दृश्य दिन का नहीं, रात का है। बात इस कमरे की नहीं, उस कमरे की है।

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