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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


अनुपमा के टेढ़े होठों पर हल्की-सी मुस्कराहट खेल गयी।

बात...बहस और तर्क अनुपमा में ये सब क्यों नहीं हैं? ये सब इतने अधिक हैं कि उनका तेज प्रवाह समुद्र की लहरों की तरह बाप-बेटे दोनों को ही बहाकर ले जा सकता है, लेकिन बहाकर ले जाने से तो अनुपमा का काम नहीं चलेगा। विचार और वितर्क के हवाले देने पर तो अनुपमा का गृहस्थी चलाना मुश्किल हो जाएगा। और उसकी अपनी औकात...।

वह चीज भी तो आम के रस की तरह पानी में घुलकर, धूप में सूखकर बिलकुल नष्ट हो गयी है। और खुशामद के खिलाफ तो खुद उसमें इतनी तड़प है जितनी बेटे के लिए उसकी तड़प, लेकिन उसके साथ ही इतनी देर तक वह क्या करती रही?

लेकिन यह सब तो कुछ भी कहती नहीं अनुपमा। मुस्कराहट की हल्की-सी रेखा और भी फीकी पड़ती हुई होठों में ही खो जाती है।

उदास स्वर मैं उसने कहा, ''क्यों नहीं? और यह सब क्या तू समझता है बेटे?

लिख-पढ़कर पण्डित हो जाने से ही क्या यह सब समझा जा सकता है? तू मुझे और बहुत मत साल रे। तेरे सारे दोस्त सैर करने जाएँगे और तू पड़ा रहेगा-मैं यह नहीं सह सकती। खुद तो मैं कभी कहीं नहीं जा सकी। दुनिया में क्या-कुछ है कभी नहीं देखा, हमेशा कैदी ही रही, लेकिन तू तो जी भरकर यह सब देख ले। इसी में मेरी खुशी है।"

मुन्ना माँ को फटी-फटी नजरों से देखता रहा। ऐसा लगा मानो माँ उन दो आँखों की भाषा में न जाने कितने सालों की नाराजगी इकट्ठी हो गयी हो। एक वंचित जीवन की,...एक बन्दी जीवन की और विवशता-भरी नाराजगी।

इसके बाद कहानी की दिशा बदली है। हाथ में चाय लिये शीला आ गयी। मुन्ना के हाथ जब रुपये आएँगे, तो वह माँ को किन-किन जगहों की सैर कराएगा, इस पर बातचीत चल पड़ी। जो मुन्ना को पसन्द है, अनुपमा को वह पसन्द नहीं। उनके विचार से कितनी तकलीफों के बाद कहीं निकलना होगा, तो फिर मंसूरी ही क्यों? पुरी और भुवनेश्वर ठीक रहेगा। शीला का आदर्श तो भाई है, इसलिए उसने माँ की पसन्द को खारिज कर दिया। लेकिन इतने में ही मुन्ना ने फिर विचार बदल दिया। पुरी, भुवनेश्वर क्या ऐसी-वैसी जगहें हैं! भारत की स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना।...नहीं, माँ की पसन्द की तारीफ करनी चाहिए।

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