कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
अनुपमा
यकायक शीला की तरह खिलखिलाकर हँस पड़ी। बीस बरस पहले दूध पीते और रूठे
बच्चे को जिस तरह बातचीत कर मना लेती थी, ठीक वैसे ही भुलावा-भरे स्वर में
बोली, ''ओह! तो यह कहो, बाबू साहब नाराज हैं। किसी ने मारा है कि फटकारा
है या गाली दी है? मालूम पड़ता है उनकी ही बातें तेरे कान में पड़ी हैं।
अनुपमा केवल उनकी बात कर रही है। अपनी गलती का तिलभर निशान भी उसके चेहरे
पर नहीं था। वह यही सोच रही थी कि मुन्ना को आखिर हो क्या गया है। तू उदास
मत हो लाल...रुपये मैं दूँगी। मैं कह रही हूँ न...।''
''तुम
रुपये कहां से ले आओगी? आसमान से...जरा सुनूँ तो। तारानाथ राय के ही तो
रुपये हैं। शौक पूरा करने की मेरी कोई इच्छा नहीं। मुझे सोने दो माँ, ये
शौक...ये घूमना-फिरना सब बेकार है।''
अनुपमा
ने चुटकियों में लड़के की बात उड़ा दी।...''हां, हां, तू तो अब बड़ा बुजुर्ग
हो गया? तेरे काम-काज की उम्र तो बीत गयी न? इसीलिए बेकार का ठप्पा लगा ले
अपने ऊपर। उनकी बात पर भी कहीं गुस्सा हुआ जाता है, बेटे! उनकी बात का
कहीं कोई सिर-पैर भी है? उनकी बात कोई मानता रहे....तो न अच्छा खाए, न
अच्छा पहने, न दोस्तों से मेल-जोल रखे। शौक-मौज सबको ताक पर रख बस
तोला-माशा और केवल रुपये-पैसे का हिसाब रखे।''
''वही ठीक भी है, जब तक
उनका अन्न-जल लिखा है।''
''यह
भी कोई बात हुई? मैंने तो अब तक उनका ही अन्न खाया है। और क्या वही कर रही
हूँ जो वह चाहते हैं. कहते हैं? वह तो मुँह पर दो-चार मीठी-मीठी बातें कर
उन्हें बहलाये रखती हूँ समझे? अनाप-शनाप बककर काम बिगाड़ने से क्या लाभ?
तुम्हारे पिता ठहरे क्रोधी स्वभाव के आदमी। अगर किसी प्रकार उनके मुँह सें
ना निकल गया, तो ही कराने की ताकत किसी के बूते की बात नहीं। सिर्फ मैं ही
उन्हें समझा-बुझाकर या खुशामद कर...''
मुन्ना
यकायक उठ बैठा और उद्धत स्वर में कहने लगा, ''क्यों करती हो? यही तो
ज्यादती है। उनकी किस बात की खुशामद? पिताजी से हमेशा डरते रहने से यह
हालत हुई है। लेकिन क्यों? क्या तुम्हारी अपनी कोई औकात नहीं? अच्छा-बुरा
सोचने की ताकत नहीं? कोई बात और जिरह नहीं?''
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