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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


''भैया! मुन्ना घर में ही है?'' अनुपमा का दिल जैसे बैठ गया।

''हां, हैं। बाहर गये थे, लौट आये हैं। उनके सिर में दर्द हो रहा है, यह बताकर सो गये हैं। क्यों, महाराज पानी चढ़ा दिया?'' शीला की नजर में भैया ही तो हैं जो सम्माननीय व्यक्ति हैं। दो-चार निवाले गले के नीचे उतारकर अनुपमा दौड़ती हुई ऊपर गयी और एकदम लड़के के बिछौने पर बैठ गयी, ''क्या हुआ रे, मुन्ना? बाहर गया, फिर लौटकर आकर सो गया। क्या तबीयत ठीक नहीं?''

कहना न होगा कि स्नेहातुर मातृकण्ठ का कोई भी उत्तर नहीं मिला। हालत जानने के लिए ज्योंही अनुपमा ने बदन पर हाथ रखा, त्यों ही हाथ हटाकर मुन्ना ने करवट बदली और सो गया।

इस अपमान पर ध्यान न दे अनुपमा ने फिर पूछा, ''कब आये तुम?''

मुन्ना चुप था।

इसलिए इसमें कोई सन्देह नहीं रहा कि माँ-बाप उसकी जो आलोचना कर रहे थे, वह उसके कान में पड़ चुकी थी। कुछ भी हो, अनुपमा हारकर लौट तो नहीं जाएगी। इसीलिए उसने रुँधे स्वर में कहा, ''आज ही अपनी तबीयत खराब करनी थी। परसों ही तो तुम लोगों को बाहर जाने की बात है?''

''बाहर जाने की'' मुन्ना ने जिस तरह त्यौरी चढ़ाकर देखा, उससे और जो हो उसकी मासूमियत नहीं झलकती थी।

''बाहर जानें का मतलब? मुझे कहां जाना है?'' उसने पूछा।

अनुपमा भी उतनी ही भोली-भाली बन गयी, एकदम खोयी-खोयी सी, मानो अभी भी उसका बचपन नहीं बीता। उसने ऐसी बालसुलभ सरलता से कहा, ''क्यों? तुम्हीं ने तो कहा था कि मंगलवार को हमारे साथी जाएँगे।''

''वे लोग जाएँगे, तो उससे मेरा क्या? उनके पास ढेर सारा पैसा है, जो चाहें सो करें।''

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