कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
|
5 पाठकों को प्रिय 3465 पाठक हैं |
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
एक बार गले में फन्दा
डालने के बाद क्या दोबार फन्दा डालना मुमकिन भी है-नन्दा ने उससे यह सवाल
नहीं पूछा। धन्य है ऐसी नारी!
सचमुच,
धन्य है! रात को खाने के समय अपर्णा अपने पति से सहन में नन्दा और सुकुमार
की उपस्थिति में-सबके सामने ही चन्दा द्वारा उठायी गयी बात पर बड़े खुले मन
से चर्चा कर बैठी। इस बात को बड़ी गम्भीरता से उठाते हुए उसने कहा, ''सुनो,
मास्टर साहब को कल से जवाब दे दो।''
''मास्टर साहब को? क्यों,
ऐसा क्या हो गया?'' श्रीकुमार चौंके।
''खामखाह हमारे इतने
रुपये बर्बाद हो रहे हैं। आखिर यह काम खुद भी तो कर सकते हो।''
''मैं?'' श्रीकुमार जैसे
आकाश से गिर पड़े।'' मैं पढ़ाऊँगा बच्चों को? यह भी कोई बात हुई? तुमसे
किसने कहा यह सब?''
''कहेगा
कौन? मैं कह रही हूँ,'' दूध का कटोरा थाल के और निकट सरकाते हुए अपर्णा ने
आगे जोड़ा, ''इसमें इतना हैरान होने की क्या बात है? तुमने भी तो बी. ए. की
पढ़ाई पास की है।''
श्रीकुमार हैरान थे।
उन्होंने उत्तेजित होते हुए कहा, ''क्या पढ़ा-लिखा था वह सब याद है अब?
क्या बात कही है?''
''अच्छा,
याद नहीं है,'' अपर्णा जैसे हताश होती हुई बोली, ''फिर तो बेकार ही गया।
मैंने सोचा, तुम्हारी सहायता से गृहस्थी का खर्च कुछ कम हो जाएगा।"
इतनी
देर बाद, श्रीकुमार को यह जान पड़ा कि उनके साथ अच्छा मजाक किया गया। बात
यह थी कि गृहस्थी का सारा खर्च श्रीकुमार अकेले ही उठा रहे थे। इसलिए सारा
दायित्व उन पर ही था।
अपर्णा
के मजाक करने का ढंग कुछ ऐसा ही था-संयत और गम्भीर। जबकि आभा जानबूझकर कुछ
ऐसा करना चाह रही थी कि बात आगे बढ़े। नन्दा तो जैसे माटी में पड़ गयी।
सुकुमार सामान्य बना रहा। वह हाथ-मुँह धोकर खाने को बैठा था इसलिए
हां...हूँ....तक नहीं कर पाया।
|