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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


पतिगामिनी अनुपमा पतिदेवता के फतवे का कोई जवाब देने से पहले कमरे में इधर-उधर घूम आयी और अपना शक दूर कर इस बात का उदाहरण देने को तैयारी हो गयी कि आजकल के लड़के, लिख-पढ़ लेने पर भी मूर्ख और उजड्ड होते हैं।

उसने बहन, बहनोई-सभी को देखा है। अन्धी ममता के नाते अपने लड़के के सिवा और कोई बात करेगी, अनुपमा ऐसी बेवकूफ माँ नहीं है। तीन-तीन परीक्षाएँ पास कर जो लड़का बड़े इतमीनान से बैठकबाजी करता रहता है, सिनेमा देखता रहता है और इधर-उधर घूमता रहता है उसकी क्या कीमत है? इधर-उधर थोड़ी कोशिश कर क्या कोई काम नहीं मिलता जिससे पिता को कुछ सुविधा होती?

बहुत-सी और बढ़ी-चढ़ी बातें अनुपमा कहती है।

तारानाथ को भी छुट्टी के दिन खाकर जल्दी उठ जाने की कोई जल्दी नहीं रहती।

आराम से खा-पीकर उठने के बाद हाथ में पान का डिब्बा ले वे बाहर के कमरे में चले जाते। छुट्टी के दिन उसी मुहल्ले के हिमांशु बाबू के साथ शतरंज की बाजी जमा करती। उनके आने का समय हो चला था।

नौकर-चाकर सभी के भोजन का इन्तजाम कर अनुपमा खाने को बैठी ही थी कि उसकी लड़की शीला नीचे से दौड़ी आयी और रसोइये से बोली, ''चूल्हा सुलगा हो तो उस पर चाय का पानी चढ़ा दो फटाफट''

चाय का पानी....दोपहर को डेढ़ बजे।

अनुपमा ने हैरानी से पूछा, ''इस समय चाय पियोगी?''

शीला ने झुँझलाकर कहा, ''मैं नहीं। भैया के सिर में बहुत दर्द हो रहा है। उन्हीं के लिए।''

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