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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


''लाड़-प्यार किस बात का?'' अनुपमा से नाराज होते हुए कहा, ''तुम अपने बेटे का तेवर नहीं जानते? गलती करता भी हो तो करे...पर एक बार भी लड़के से कुछ कहने की हिम्मत है?''

''है या नहीं, यह तो मैं देखूँगा।'' तारानाथ धमकी देते हुए उठ खड़े हुए। ''मैं खूब कह सकता हूँ हजार बार...पर कह नहीं सकता केवल तुम्हारे डर से।''

अचानक चालीस पार गयी अनुपमा के चेहरे पर वही हँसी खिल गयी, चौबीस साल की युवती की हँसी की तरह। लेकिन जवाब उसने अपनी उम्र के अनुसार ही दिया, ''हाय! मैं मर जाऊँ! मेरे डर से तो तुम भीगी बिल्ली बने जा रहे हो। डरना हो तो डरो आजकल के लड़कों से। मुन्ना ही तो उस दिन कह रहा था, उसके किसी दोस्त के भाई ने, बाप से फटकार सुनकर...। वहाँ कौन है?''

तारानाथ ने उपेक्षा भरे स्वर में कहा, ''मेघी होगा।''

''क्या पता?'' अनुपमा ने सन्देह भरे स्वर में कहा, ''मुझे तो लगता है मुन्ना सीढ़ी से ऊपर गया।'

''मुन्ना कहां? यह तो बड़े बाबू हैं, साहब बनकर जा रहे हैं। हाथ में बिना पोर्टफोलियो लटकाये बाहर नहीं निकल सकते...जैसे बड़े भारी अफसर हों।''

''हां, यह भी आजकल का फैशन हो गया है लड़कों का। अभी तक लौटकर नहीं आया।'

''लौटकर क्यों आने लगा?''

''क्या पता, कुछ भूल गया है शायद! परसों बहुत दूर निकल गया था....फिर दौड़ा-दौड़ा वापस आया। घड़ी यहीं भूल गया था।''

''आएगा क्यों नहीं! कलाई में घड़ी बाँधे बिना घर से निकलने पर धर्म नष्ट नहीं हो जाएगा? घर के लिए दौड़कर कोई चीज लाने को कह दो, लाट साहब के सिर पर आसमान टूट पडता है।'' गुस्से से भरे स्वर में ये सारी बातें कहते हुए तारानाथ पानी में नीबू का टुकड़ा निचोड़ रहे थे। महँगे नीबू। बड़े-बड़े दो नीबू निचोड़कर पीने के दिन अब लद गये।

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