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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


अनुपमा ने काफी तिलमिलाकर जवाब दिया, ''अब क्यों टोक रहे हो दिल्ली जाने के बारे मैं? दोस्त दिल्ली जा रहे हैं, तो वह क्यों न जाए? कब से दिल्ली-दिल्ली की रट लगा रहा है!''

तारानाथ ने गुस्से में कहा, ''अभी भी वही जिद लिये बैठा है? मैं एक बार फिर कहे देता हूँ-नहीं जाएगा...बस।''

''मैंने भी यही कहा था,'' अनुपमा ने पंखा रखकर हाथ हिलाते हुए कहा, ''पर वही जिद करता रहा था। भला क्यों नहीं जाऊँगा। मेरे जाने से आपका क्या नुकसान है? लोग-बाग क्या कहीं जाते नहीं हैं? जो जाते हैं, सब मर जाते हैं? मना करने की कोई वजह तो...ऐसी ही बहकी-बहकी बातें।''

हां, मना करने की कोई वजह तो होनी चाहिए!

इतनी हिम्मत! तारानाथ की मनाही ही सबसे बड़ी वजह है। बस, इसके अलावा और भी कोई वजह या हवाला देना होगा लड़के को। तारानाथ ने गुस्से में भरकर कहा, ''मैं उसका ताबेदार नहीं जो कारण बताऊँ। शोहदे लड़कों के हुजूम में कोई हंगामा खड़ा करने के लिए मैं उसे नहीं जाने दूँगा। रुपये जमा करने के लिए मैं हूँ। बच्चू को हजामत तक का पैसा तो हाथ फैलाकर इसी बूढ़े से लेना पड़ता है। इस पर से इतनी अकड़! सीधे मुँह बात तक नहीं की जाती, जैसे मैं कोई कीड़ा हूँ कीड़ा।''

अनुपमा ने भी उसी स्वर में कहा, ''केवल तुम्हीं क्यों? कौन नहीं है? दुनिया में किसी की परवाह करते हैं वे लोग? जरूरत के समय तुम्हीं तो हाथ फैलाने को कहते हो। यहीं तक होता, तो खैर थी। मुँह खोलकर मांगने से इज्जत चली जाएगी। इसलिए देना ही होगा और वे लेकर मानो बहुत बड़ी कृपा करेंगे।''

''हूँ,'' तारानाथ ने गम्भीर होकर कहा, ''कहूँगा, तो तुम्हें बुरा लगेगा। लेकिन सच बात तो यह है कि सब तुम्हारे लाड़-प्यार के चलते हुआ है।''

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