कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
चौथा
दृश्य भी है। वह है अनुपमा के मायके की पृष्ठभूमि पर, लेकिन उस बात को
रहने दीजिए। यह...दो युग के बाद की बात कही जाएगी, दो युग क्यों, उससे भी
अधिक।
समय
बदल गया है, लेकिन स्थान वही है। पात्र भी वही हैं, यह कहा जा सकता है।
उसी सहन में ठीक उसी भंगिमा में बैठी हैं गृहस्वामिनी अनुपमा। हाथ में
पंखा लिये। नाक-नक्श भी कुछ बदल गया है। शरीर की रंगिमा कुछ फीकी पड़ गयी
है, लेकिन बाल जो सफेद हो गये हैं, उन पर यकायक नजर नहीं पड़ती।
सामने भोजन करने के लिए
बैठे हैं वर्तमान गृहस्वामी तारानाथ।
पच्चीस
में पच्चीस जोड़ देने पर जिस बदलाव का आना जरूरी है, उससे कोई ज्यादा
परिवर्तन तारानाथ के चेहरे पर दिखाई नहीं पड़ रहा। आसन और बर्तन पिता के
समय के ही हैं। हां, भोजन का तौर-तरीका ठीक वैसा नहीं है। उस पर इस युग की
हल्की छाप है। गृहिणियों के सिर पर से आवभगत का बोझ अब हट गया है। इस समय
उन बातों की चर्चा ही होती है। उस समय 'पानी' के साथ इस जमाने की 'आग' की
तुलना करते हुए अनुपमा आये दिन हैरानी प्रकट करती रहती है। और यह इच्छा भी
प्रकट करने से नहीं चूकती कि दुनिया भर के नवाबी रोब-दाब के साथ तारानाथ
और कितने दिन निभा सकेंगे?
लड़का
तो एकदम लाट साहब का पोता हो गया है और लड़की जैसे राजकुमारी। जरा-सी चूक
होते ही मुँह की खानी पड़ती है। लड़की और लड़कों की आँख बचा यह जरूर कहा जाता
है, आजकल के लड़की-लड़कों का भरोसा नहीं।
आजकल बाजार के मोल-तोल पर
बहस नहीं हो रही। पतिदेव नाराज रहते हैं और अनुपमा चुप।
थोड़ी
देर तक खाते रहने के बाद मुँह उठाकर तारानाथ बोले, "किस बात पर इतनी देर
बाबू साहब जिरह कर रहे थे?'' कहना नहीं होगा, बाबू साहब और कोई नहीं
तारानाथ का जवान तथा बेकार बेटा था। ऐसी कडुवी जुबान और किसके लिए
इस्तेमाल में लायी जा सकती है। अपने जवान बेटे के सिवा?
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