कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
''ओ माँ, तुम अब तक यह भी
नहीं जान पायी? हाय! तो फिर इतने दिनों से यहाँ आते-जाते देखा क्या?
अभिसार को जाते हैं...और कहाँ?''
आभा
अब तक पनबट्टे में से इलायची ही ढूँढ़ रही थी जो उसे अब तक मिल नहीं पायी
थी। और अपर्णा के सामने रहने पर वह मिलती भी कैसे? उसे पता था होठों के
कोने पर तेज नुकीली और चमकीली धार की एक-एक किरच अपर्णा के चेहरे से फूट
पड़ेगी।
नन्दा ने फिर भी बड़ी
मिठास से पूछा, ''मजाक छोड़ो बहू सच-सच बताओ।''
''मैंने
ठीक ही तो कहा, दीदी! और तुम्हारे भैया कोई बूढ़े तो नहीं हुए। एक दिन उनकी
तरफ ठीक से देखो तो सही। मुझे तो यही जान पड़ता है कि अगर जो कहीं वे किसी
दूसरे के पति हो जाते तो मैं बेहोश ही पड़ी रहती।''
''लो और सुनो, ''कहती हुई
नन्दा ने उसे बड़ी हैरानी से देखा और चुप हो गयी। उस जैसी बड़बोली को
तत्काल कोई जवाब न सूझा।
अपर्णा
के दोतल्ले के ऊपर जाते ही आभा ने अपना मुँह ऊपर उठाया और चुटकी लेती हुई
बोली, ''देख लिया न नन्दा दी? मैंने कहा था न...तोड़ना तो दूर रहा, उसे तो
मोड़ना भी मुश्किल है।''
''दीख
तो ऐसा ही रहा है। शाम ढलने के पहले इन्हीं मुई आँखों ने तो उसे अपने
हाथों नक्काशीदार कुरता, चुन्नटदार धोती, जूते, छड़ी, तेल-फुलेल,
सेण्ट-पाउडर सहेजकर रखते देखा था।''
''तो
फिर मैं कह क्या रही थी? तैयारी देखकर तो ऐसा ही लगता है कि किसी राजदरबार
में जा रहे हैं और तभी सिपहर से ही सारी तैयारी शुरू हो जाती है। और क्यों
न हो भला! सैंया जा बाईजी का मुजरा सुनने को जो तशरीफ ले जाएँगे। अब में
क्या बताऊँ, नन्दा दीदी! अगर मैं उसकी जगह होती न...तो दिन-दहाड़े गले में
दो-दो बार फन्दा चढ़ाकर झूल गयी होती।''
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