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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


अपनी बात खत्म करके अमल मुस्कराया। बोला, ''हालाँकि उन्होंने 'ये लोग' नहीं कहा था। कहा था 'साले लोग'।''

छवि भूखी-प्यासी पड़ी थी, इसीलिए क्या गला-सूखा जा रहा था शायद या कि अपने बुरे बर्ताव के लिए शर्मिन्दा थी? वैसे छवि का गला तो बड़ा सुरीला रहा है। है नहीं...था। इस समय सूखी आवाज में छवि बोली, ''तो तुम्हारे परोसने का ड्न्तजार तक नहीं किया। खुद ही तो...''

''रहने दो छवि, इन बातों को छोड़ो।...तुम खाओ चाहे न खाओ, उन्हें जगा दो, मेरी बात रह जाएगी।''

छवि ने अपने बचपन की यादों की मर्यादा को मिट्टी में मिलाते हुए बड़े रूखे ढंग से कहा, ''वह नहीं खाएँगे।''

''छवि, सचमुच ही तुम हद से ज्यादा आगे बढ़ रही हो। हर बात की एक हद होती है। आज नाराज हो इसीलिए उन्हें खाने नहीं दोगी, लेकिन कल तो देना पड़ेगा। तब?''

छवि हँस पड़ी।

सचमुच की हंसी। खनखनाती हँसी। साथ ही वाली, ''कल भी नहीं खाएँगे

अमल, परसों भी नहीं, किसी दिन भी नहीं।''

पता नहीं, अमल मामूली ढंग से कही गयी इस गुस्से की बात को सुनकर क्यों डर गया? छवि, क्या उसे सचमुच ही भुतही लगी? क्या इसीलिए सहसा वह चिल्ला उठा- 'छवि!'

छवि ने इस पुकार का कोई उत्तर नहीं दिया। वह अपनी जगह से हिली तक नहीं।

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