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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


ये सारी बातें वह हँस-हँसकर ही कहती थी।

फिर आज पति का आखिर ऐसा अपमान क्या हो गया कि चेहरा ही बदल गया?

तब तो सतीनाथ की पत्नी का कहना ही ठीक है। मानना पड़ेगा कि मारे जलन के और जरा-सा मौका पाते ही छवि ऐसे नखरे कर रही है। बड़े भाई की लड़की की इतनी धूम-धाम से शादी हुई, इतना सुन्दर दूल्हा मिला, यह देख-देखकर ईर्ष्या से छाती फट रही है।

छवि के बारे में ऐसी बातें सोचना भी गुनाह है। यह तो छवि ही है जो यह सब कहने-सोचने के लिए सामान मुहैया कर रही है।

जलन नहीं तो और क्या है?

वरना छवि में ऐसी पतिभक्ति इससे पहले किसने देखी थी? उसकी भाभी तो यहीं तक कहा करती थीं, ''छवि का पति पागल है, इस बात का दुःख कम-से-कम छवि को देखकर तो नहीं लगता। कैसा पत्थर का कलेजा है...बाप रे!''

वही पत्थर का कलेजा आज मारे जलन के टूट-फूटकर चकनाचूर हो गया है। लेकिन अमल ने अपने मन में आ रही इन बातों को जाहिर होने नहीं दिया। बस इतना ही कहा, ''तुम बड़ी निर्मम हो, छवि!''

''तुम्हें आज पता चला?'' छवि ने आगे कहा, ''लेकिन तुम क्यों आये, यह तो बताओ? कहीं खाना खाने के लिए तो बुलाने नहीं आये?''

अमल ने बुझी-बुझी निगाह से फिर एक बार छवि को अच्छी तरह से देखना चाहा। फिर बोला, ''नहीं, तुम्हें बुलाने आऊँ, मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है। सिर्फ इतना ही सोच रहा था, क्षितीश बाबू को भूखा रखकर रोक रखने से बड़े भैया को कितनी सजा मिल सकेगी? ये बेचारे भले आदमी ही बुरे फँसे। बड़े उत्साह से मुझे कहा था, 'देखो अमल, तुम मुझे परोसकर खाना खिलाना। ये लोग ठीक से खाना नहीं परोस पाते'।''

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