कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
दलीलों
सें भरा ऐसा सवाल सुनकर सतीनाथ भी गुस्से से पागल हो गये थे। चूँकि वह
वैवाहिक क्रिया सम्पन्न करवाने बैठे थे, इसीलिए तुरन्त कोई पहल नहीं कर
सके थे। लेकिन इस समय उनके मन में प्रसन्नता से हृदय के तार बज रहे हैं,
डस घड़ी यह पूछा जा सकता है, ''क्षितीश ने खाना खाया?''
ऐसी कोई बात कानों में
नहीं पड़ी जो उन्हें अच्छी लगती।
सुना-शाम
से ही कुछ नहीं तो भी पचासों लोग होंगे, जिन्होंने जा-जाकर छवि की खुशामद
की है, आकर शादी देख ले, लोगों के पास आकर बैठ, पांत में बैठकर खाना ही खा
ले। लेकिन वह पत्थर की तरह बैठी है, टस-से-मस नहीं हो रही, उसे नीचे उतारा
नहीं जा सका है।
इस
बदतमीजी की पूरी-पूरी कहानी दोबारा पत्नी से सुनी। इसके बाद भी मन में
प्रसन्नता और विहलता के तार झंकृत होते रहेंगे, ऐसी आशा नहीं की जा सकती।
वह तेजी से तिमंजिले पर जा पहुँचे। और बोले, ''अरे मैं तेरे आगे हाथ जोड़
रहा हूँ-चलकर हमार साथ खाना तो खा ले।''
क्या छवि की आवाज कँप रही
थी?
या कि सतीनाथ का वहम था।
शायद
वहम ही था। छवि तो बड़े स्पष्ट स्वर में कह रही है-''ऐसी बातें क्यों कर
रहे हो, बड़े भैया? मैं तो कह चुकी हूँ कि भोज खाने की हैसियत मुझमें है
नहीं। मुझसे खाया नहीं जा सकेगा। सिर में बड़ा दर्द हो रहा है।''
सतीनाथ
को याद आया, एक पोटली में बँधा खाना, साथ ही वही दृश्य, कितना बीभत्स! और
इसी के साथ ही, कि भले ही पागल हो या जानवर-है तो पति ही। भीग स्वर में
बोले, ''अच्छा ठीक है, खा सको या न खा सको, एक बार साथ बैठ तो जाना। मैं
क्षितीश का खाना ऊपर भिजवा रहा हूँ उसे खिलाकर तू नीचे चली आ। '
उसी
तरह से पत्थर की मूरत-सी बनी छवि वोली, ''वह तो खाना नहीं खाएँगे, बड़े
भैया!''
फिर उनके धीरज का बांध
टूट चला।
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