कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
...और
शायद तभी याद आया कि कैसे एक बदतमीज की तरह एक चीथड़े में ढेर सारी पूड़ी,
मिठाई, कबाब, फ्राई वगैरह लेकर सभा के बीच में क्षितीश पाँव फैलाकर खाने
बैठ गया था। यह दैखकर एक जोरदार डाँट लगाकर गर्दन पकड़कर वहाँ से खदेड़ दिया
था।
काम गलत किया था, सतीनाथ
इस बात से इनकार नहीं करते लेकिन उनका शरीर भी तो हाड़-मास से बने आम
इन्सान का ही है?
उसी
घड़ी वर और बाराती आकर सभा-मण्डप में बैठे ही थे, कन्यादान करने के लिए
सतीनाथ खुद भूखे-प्यासे बैठे हुए थे... अधीर, उतावले और चंचल बिलकुल ऐसे
ही उत्तेजनापूर्ण, संगीन मुहूर्त्त में ऐसा घिनौना और बेहूदा दृश्य देखकर
कौन गुस्सा रोक सकता है?
सतीनाथ भी सहन न कर सके
थे।
लेकिन
इस बात से वह पागल अपने आपको बुरी तरह अपमानित महसूस करेगा यह नहीं सोचा
था उन्होंने। ज्यादा-से-ज्यादा हलवाई के पास जा बैठेगा, उन्होंने यही सोचा
था। सही बात का पता उन्हें तब चला जब देखा कि छवि अनुपस्थित है। छवि के
बिना सिर्फ उन्हें ही असुविधा का सामना नहीं करना पड़ रहा, सारे घर में
तरह-तरह की बेतरतीबी दिखाई दी थी...चारों ओर से 'छवि' 'छवि' पुकार शुरू हो
गयी थी।
और
उसी समय बड़ी साली ने कन्यादान सभामण्डप के बीच सारी बात का खुलासा करते
हुए कहा, ''पता नहीं भाई, सुन रही हूँ तुमने अपने बहनोई को भला-बुरा कहा
है। गर्दन पकड़कर धकेला है। इसीलिए तुम्हारी बहन दुखी होकर पति के साथ बन्द
कमरे में बैठी है। तब से नीचे उतरी तक नहीं है। पता चला, बहनोई जी ने
हलवाई से पत्तल भर खाना इकट्ठा किया था और वह सब भी आँगन, बरामदे, सहन और
सीढ़ियों पर बिखरा दिया था। गुस्से के मारे सब कुछ फेंक-फाँककर फैला दिया
था। माना कि वह पागल है पर तुम्हारी बहन तो पागल नहीं है न?''
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