कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
छवि
अगर कमरे से थोडा बाहर निकल आती तो शायद उसका चेहरा दीख पड़ता, लेकिन छवि
बाहर नहीं निकल रही है। लगता है, किसी ने सीता की तरह लक्ष्मण रेखा खींचकर
उसी में रहने को कह दिया है। जैसे कि अगर उस रेखा को लाँघेगी तो रावण पकड़
लेगा।
लेकिन
दरवाजा बन्द करके छवि बिस्तर पर लेट जाए, यह मौका ही नहीं मिल पा रहा था।
शाम से ही एक के बाद एक आदमी चला आ रहा था छवि को बुलाने।
''अरी ओ छवि...पाँच सौ
आदमी आ गये हैं नीचे, कितने ही लोग 'छवि-छवि' करके तुझे पूछ रहे हैं, आ एक
बार।''
''ए छवि, तेरे बड़े भैया
को कितना सुन्दर दामाद मिला है, आकर एक बार देख तो जा।''
''बुआ जी, कोहबर घर में न
जाने तुमने क्या-क्या कुछ नहीं किया है, पिताजी बुरी तरह नाराज हो रहे
हैं, जल्दी आओ।''
''तुम्हें बुलाया है,
आओ।''
लेकिन छवि है कि जौ भर
नहीं हिली।
छवि की जिद और कसम टूट ही
नहीं रही है। छवि कह रही है उसके सिर में जोरों का दर्द है।
जबकि
सारे दिन ऐसा कुछ भी नहीं था। और किसी भी दिन ऐसा कुछ नहीं था। शुरू से ही
शादी का हर काम छवि के ही जिम्मे था।...रसोई, भण्डार, खाने-पीने का
इन्तजाम, पूजा-घर वगैरह की देखभाल-चरखी की तरह छवि चक्कर काटती रही थी। और
तभी ऐन शादी की शाम कैसे यह घटना घटित हो गयी, जिसे तूल देकर छवि अपने
कमरे में जा घुसी है। इस छोटी-सी घटना से आहत होकर लेट गयी है, किसी को
पता ही नहीं था। उसकी तलाश इसी समय... कन्यादान के वक्त शुरू हुई। छवि?
छवि कहीं है?
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