लोगों की राय

कहानी संग्रह >> किर्चियाँ

किर्चियाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

3465 पाठक हैं

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


सीमा-रेखा

सभी हारकर लौट गये थे।

आखिरकार सतीनाथ खुद तिमंजिले पर आये। तीव्र स्वरों में बोले-''बेहूदगी की भी एक सीमा होती है, छवि! रहनी चाहिए। लेकिन ऐन शादी के मौके पर, मेहमानों से जब घर खचाखच भरा हुआ है, जैसी बेहूदगी तुमने की, उसकी कोई सीमा नहीं है। मेरी इज्जत इतने सारे रिश्तेदारों के सामने मिट्टी में मिला दी, अपनी भी कोई कम हँसी नहीं उड़वायी है तुमने। अब दया करके चलो।''

तिमंजिले की छत पर कमरा बनाने की इजाजत नहीं थी, फिर भी छवि के लिए यहाँ टाइल्स लगवाकर कमरा बनवाया गया था। छवि के इस टाइल्स लगे कमरे में बत्ती नहीं जल रही थी, फिर भी नीच पण्डाल में लगी अनगिनत बत्तियों की आड़ी-तिरछी रोशनी न जाने कैसे आकर दरवाजे के सामने वाले हिस्से को रोशन कर रही थी।

उसी दरवाजे के एक किनारे हाथ रखे खड़ी थी छवि। उस हाथ की पाँचों अँगुलियाँ और गाल का एक हिस्सा ही दिखाई पड़ रहा था, लेकिन उससे छवि के चेहरे के हाव-भाव का अनुमान नहीं लग पा रहा था।

यह समझ में नहीं आ रहा था कि वैसी ही, पहले जैसी अकड़ में है या कुछ ढलिाई पड़ गयी है।

सतीनाथ के बुलाने आने पर भी अगर पहले वाली हालत बनी रहे तब तो मानना ही पड़ेगा कि छवि भी अपने पति की तरह पागल हो गयी है।

लेकिन हालात बदल गये हैं, ऐसा नहीं लगता। अजीब-सी रूखी आवाज में छवि बोली, ''तुम क्यों तकलीफ उठाकर ऊपर चले आये भैया, मैंने तो कह ही दिया है...।''

''हां, जानता हूँ...'' सतीनाथ अपनी खीज और नाराजगी को फेंटकर बोले, ''मुझे पता है...एक-एक करके घर का हर कोर्ड आकर तुम्हारी खुशामद कर गया है और तुमने सबको खदेड़ दिया है, यह कहकर कि 'नहीं खाऊँगी, नीचे नहीं जाऊंगी। सुना, तुम्हारी भाभी ने हाथ तक जोड़े हें तुम्हारे आगे। इस पर भी तुम्हारा...''

छवि का चेहरा अभी भी नहीं दिखाई पड़ रहा है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book