कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
गठबन्धन
की चीजें...हल्दी और कौड़ी कहीं है? बगल ही में रखी थीं, जरूरत के वक्त पर
कुछ नहीं मिल रहा। मिले कैसे? कोई पास बैठकर देता रहे तो कितनी सुविधा
होती है? फिर केवल यही एक काम तो नहीं है? गँठजोड़ वाली कौड़ी और हल्दी की
ही बात नहीं, कन्या का अंगवस्त्र कहाँ है? छवि ही तो सारा दायित्व सँभाल
रही थी। लड़की की माँ क्या-क्या करे? उसे आने वालों की खातिरदारी भी तो
करनी है।
लेकिन
सब कुछ जानते हुए सबसे 'चरम' समय पर ही गायब हो गयी? छिः-छिः। इस वक्त गयी
है, डाँट खाये पति के साथ दिल्लगी करने। और क्या। लेकिन इसके लिए यही वक्त
था? वह ठहरा पागल और बेवकूफ आदमी, फिर न जाने क्या कर बैठे। उसे नींद की
दवा खिलाकर आराम से चली आती। बाबा? शादी हो जाए वर-वधू कोहबर घर में जले
जाएँ तब न हो थाल सजाकर खाना, तिमंजिले पर ले जाना और पतिदेव को छेड़-छेड़कर
खिलाना।
यह क्या?
यह सब तो बरदाश्त करना
मुश्किल है।
''लोगों
से सारा घर भरा है और तू अपना रोब झाड़ती कमरे में पति के साथ जा बैठी है?
कह रही है 'वह नहीं खाएगा तो मैं भी नहीं खाऊँगी?' छिः-छिः बड़े भैया को
इतना बढ़िया दामाद मिला। सब-के-सब कितने खुश हो रहे हैं। और तूने देखा तक
नहीं? सोहागनों के नेगाचार के समय तक उतरकर नहीं आयी? यहाँ तक कि अब न
खाने की धमकी दे रही है? इतना बड़ा हंगामा, इतना खाना-पीना, मछली-मिठाई का
ढेर और तू कह रही है 'मैं नहीं खाऊँगी'? दोनों जने नहीं खाएँगे। उपवास
करेंगे और कोप-भवन में पड़े रहेंगे।''
''भतीजी के शुभ-अशुभ का
तुझे ध्यान नहीं? तू अपने भाई-भौजाई की इज्जत की हेठी करेगी? बेहूदगी की
भी एक हद तो होती है।''
''बड़ा
भाई तुझसे उम्र में बीस साल बड़ा है, पिता के समान। पिता की तरह तुझे
पाला-पोसा, तेरी शादी की। इतना ही नहीं, उसके बाद भी बारहों महीने तुझे और
तेरे पागल पति का बोझ ढो रहा है। तेरे लिए कमरा तक बनवा दिया है। उसी बड़े
भाई ने अगर पागल को बुरा-भला कह दिया और जरा-सा झिंझोड़ दिया तो क्या तू
ऐसा सलूक करेगी? तुझमें इतना-सा भी कृतज्ञता का भाव नहीं है?''
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