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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


इसी क्षण कानन की रक्षा करने खुद साहब नहीं आ सकते?

शायद ऐसा हो पाना मुमकिन नहीं था।

और कानन की हिफाजत करने की गरज थी भी किसे? जो बेवकूफ आसरा देनेवाले पर कुल्हाड़ी चलाता है उसे मौत के मुँह में जाने से खुदा भी नहीं बचा सकता।

इसीलिए कुछ नहीं हुआ। कानन ही को कहना पड़ा, ''बस यूँ ही मिलने चली आयी थी।''

''मिलने चली आयी थी? मुझसे?'' मेमसाहब के होठों के कोनों को हँसी छू गयी, ''कहां ताश खेलने तो नहीं आयी हो न? या फिर पान-तम्बाकू खाने!... खैर! नागन की पूँछ पर पाँव रखने का कग नतीजा होता है यह शायद अनिमेष वोस नहीं जानता।...और उसे यह वात सिखानी पड़ेगी। अब तुम जा सकती हो!''

अपनी काली लम्बी चोटी को लहकाकर, कसी और कसमसाती देह को मरोड़ती मेमसाहब पर्दा सरकाकर घर के अन्दर चली गयी।

उसके बाद?

उसके बाद सचमुच अनिमेष को सीखना पड़ गया कि नागन की पूँछ पर पाँव रखने का परिणाम क्या होता है। दफ्तर के नियम बदल गये। यहाँ आने के डेढ़ ही महीने बाद उसके तबादले का ऑर्डर आ गया... अनिमेष बोस के लिए।

इस दफा हेड क्वार्टर्स नहीं। बहुत ही दूर...किसी रही जगह पर। जहाँ किसी क्वार्टर के मिलने की बात सोची भी नहीं जा सकती है। दो रिक्शे आकर खड़े हुए।

खीज, धिक्कार, अपमान और जलते गुस्से ने अनिमेष को पत्थर बना दिया था। अभी तक कानन के साथ एक शब्द नहीं बोला था। चौबीस घण्टे की नोटिस में तबादले के ऑर्डर के भीतर जो छिपा था-उस रहस्य को छिपाना आसान नहीं था। तिरस्कार करने की भी इच्छा नहीं हो रही थी।

कानन तो जैसे बोलना ही भूल गयी हो। चुपचाप खड़े-खड़े देख रही थी, किस तरह अनिमेष के हाथों का एक झटका खाकर कॉच के बर्तन झनझना उठे, किस तरह लात मार-मारकर वह बिस्तरबन्द इधर-उधर लुढ़काता रहा था।

सफेद संगमरमर के एक लोटे में कानन गंगाजल रखती थी। श्री रामकृष्ण की तसवीर के नीचे एक आलने पर। वह क्या असावधानी के कारण ही अनिमेष के हाथों से गिरकर इधर-उधर बिखर गया!

इस चूक के लिए अनिमेष कुछ शर्मिन्दा भी हुआ।

अभी तक कानन ने एक शब्द नहीं कहा था...अब कहीं जाकर बोली। बड़ी मुश्किल से उमड़ आते आंसुओं को रोकती हुई बोली, ''पूजा की चीज है, उसे इस तरह

शायद वह चुप रहती तों अनिमेष को अपने किये का अधिक पछतावा होता रहता; लेकिन कानन की बात सुनते ही उसके तन-बदन में आग लग गयी। लोटे के छोटे-छोटे बिखरे टुकड़ों को बटोरकर फेंकते हुए वह झुँझलाकर बोल उठा-''टूटे और टूट जाएँ। यब कुछ टूट जाए। सारी चीजें टूटकर चकनाचूर हो जाएँ।...साहब का घर बरबाद हुआ जा रहा है, सोचते-सोचते तुमने मेरा घरौंदा रौंद डाला। इसीलिए तो कहते हैं औरत की बुद्धि...जाओ...फिर जाकर झामापुकुर वाली गली में पडा-पड़ा सड़ती रहो और झामा घिसो। तुमको बार-बार मना किया था कि चुप रहना...वह सब भूल जाना। मगर..।"

एक-एक कर और पटक-पटककर सारा सामान चढ़ाता रहा अनिमेष।

कानन इतने शौक से सजाये अपने घर की दुर्गत होते देखती रही, खड़ी-खड़ी...। लेकिन उसकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि एक औरत, जो अपने पति को बेवकूफ बना रही है, बेवफा है...दुश्चरित्र है...पति का घर तोड़ रही है, यह वात जानकर भी चुप रहना...भला मुमकिन है कभी?

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