लोगों की राय

कहानी संग्रह >> किर्चियाँ

किर्चियाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

3465 पाठक हैं

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


पर आज की बात कुछ और थी।

आज कानन का दिल इतनी जोरों से धड़क रहा था कि शायद उसी की आवाज ने मेम साहब कौ चौंका दिया।

''कौन? कौन है?'' कहती हुई वह खुद खिड़की का पर्दा हटाती आ खड़ी हुई। ''कौन है?'' उसने पूछा।

कमरे से बाग की तरफ चली आयीं मेमसाहब। फिर बड़े कड़े स्वर में पूछा, ''तुम कौन हो?''

धूप और गरमी से लाल हुए चेहरे से जितना बन सका, कानन ने बताया। कम-से-कम परिचय का मामला तो साफ हो गया।

''अच्छा....दफ्तर के अनिमेष बोस की पत्नी हो तुम! यहाँ ताक-झींक क्यों कर रही थीं?''

बडी मुश्किल से साहस बटोरकर कानन बोली, ''आपसे भेंट करूँगी....इसीलिए। देख यही रही थी कि आप सो तो नहीं रही हैं?''

''ओह! यह बात है?'' मेमसाहब का सुन्दर नाक-नक्श, आँख और होठों से सजा चेहरा अचानक हिंसा-भाव से विकृत हो उठा।

''लेकिन मुझसे भेंट करने क्यों आयी हो तुम? क्या अनिमेष बोस अपनी नौकरी सै हाथ धो बैठा है?''

काटो तो खून नहीं कानन को। मेमसाहब का गुस्से से तमतमाया चेहरा...उसकी चुस्त और सुडौल देह को देखती हुई बोली, ''नहीं, नौकरी भला क्यों जाएगी? अभी उसी दिन तो तबादला होकर आये हैं, इधर ही...नया क्वार्टर मिलने पर।''

''ओ अच्छा? तो...फिर यहाँ क्यों आयी हो?'' मेमसाहब ने पाँव पटककर पूछा। कानन की रक्षा के लिए भगवान क्या कोई दूत नहीं भेज सकते हैं। या फिर

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book