कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
पर आज की बात कुछ और थी।
आज कानन का दिल इतनी
जोरों से धड़क रहा था कि शायद उसी की आवाज ने मेम साहब कौ चौंका दिया।
''कौन? कौन है?'' कहती
हुई वह खुद खिड़की का पर्दा हटाती आ खड़ी हुई। ''कौन है?'' उसने पूछा।
कमरे से बाग की तरफ चली
आयीं मेमसाहब। फिर बड़े कड़े स्वर में पूछा, ''तुम कौन हो?''
धूप और गरमी से लाल हुए
चेहरे से जितना बन सका, कानन ने बताया। कम-से-कम परिचय का मामला तो साफ हो
गया।
''अच्छा....दफ्तर के
अनिमेष बोस की पत्नी हो तुम! यहाँ ताक-झींक क्यों कर रही थीं?''
बडी मुश्किल से साहस
बटोरकर कानन बोली, ''आपसे भेंट करूँगी....इसीलिए। देख यही रही थी कि आप सो
तो नहीं रही हैं?''
''ओह! यह बात है?''
मेमसाहब का सुन्दर नाक-नक्श, आँख और होठों से सजा चेहरा अचानक हिंसा-भाव
से विकृत हो उठा।
''लेकिन मुझसे भेंट करने
क्यों आयी हो तुम? क्या अनिमेष बोस अपनी नौकरी सै हाथ धो बैठा है?''
काटो
तो खून नहीं कानन को। मेमसाहब का गुस्से से तमतमाया चेहरा...उसकी चुस्त और
सुडौल देह को देखती हुई बोली, ''नहीं, नौकरी भला क्यों जाएगी? अभी उसी दिन
तो तबादला होकर आये हैं, इधर ही...नया क्वार्टर मिलने पर।''
''ओ
अच्छा? तो...फिर यहाँ क्यों आयी हो?'' मेमसाहब ने पाँव पटककर पूछा। कानन
की रक्षा के लिए भगवान क्या कोई दूत नहीं भेज सकते हैं। या फिर
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