कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
मित्रा
साहब की मेम साहब की जरूरत से ज्यादा लीपा-पोती और चटक-मटक पर दफ्तर में
लोग हँसा करते हैं और मातहतों की जैसी आदत है, आलोचना भी खूब करते हैं। हर
कोई...लेकिन यह तो बडी आफत वाली बात है!
बेवकूफ
कानन भी दोपहरी में निकलकर साँप की बीबी का पता लगा बैठी। एक गरीब और
साधारण परिवार का लड]का अनिमेष सोचने लगा, ''यह बात नामुमकिन है...हो ही
नहीं सकता, इसमें कहीं कोई गलती है।''
मित्रा
साहब की पत्नी के साज-सिंगार पर लोग जैसी टीका-टिप्पणी करते हें ठीक वैसी
ही टीका-टिप्पणी करते हैं साहब की...बीवी के पीछे-पीछे डोला करते हैं न।
खैर, बड़े लोगों की बड़ी बातें।
अनिमेष
ने एक गहरी साँस के साथ कहा, ''अब रहने दो, खूब हुआ है घूमना। अब तुम्हें
कहीं नहीं जाना है। और एक बात याद रखना...? जो कुछ देखा है उसे हे तौर पर
भुला देना। यह भी भूल जाना कि उस रास्ते पर कभी कदम भी रखा है है।"
कानन हँसना भूल चुकी
थी...उसका दिल डर के मारे धड़कने लगा था।
अपने
ऊपर से जैसे भरोसा ही उठ गया-बार-बार लगने लगा, क्या उसके देखने में कोई
गलती हो गयी? चिलचिलाती धूप के कारण क्या उसकी आँखें चौंधियां गयी थीं?
मेम साहब क्या अकेली ही थीं?...लेकिन....भरी दोपहर में...जीता-जागता
एक...कानन अन्धी तो है नहीं!
काफी
देर के बाद कानन बोली, ''सुनो जी...यह भी क्या मुमकिन है?'' अनिमेष ने
रूखे स्वर में कहा, ''असम्भव क्या है? दुनिया में ऐसी घटनाएँ घटती न हों,
ऐसा भी तो नहीं।''
''तो क्या ऐसा इन्द्र
देवता-सा पति रहते हुए भी...''
''उससे कुछ आता-जाता नहीं
है। कहावत है न...जिसके साथ मन मिले उसके साथ खैर...'' अनिमेष ने फिर एक
साँस छोड़ी।
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