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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


लेकिन अब कानन जैसे तैयार बैठी थी। तमककर बोली, ''बैठ-बैठकर लम्बी-लम्बी साँसें मत भरो। इस बात का विरोध तो करना चाहिए...''

''विरोध?'' अनिमेष मुस्कराया, ''हम करेंगे विरोध? भला कैसे?''

''कैसे क्या? साहब से कह दोगे। उस हरामी और पाजी को साहब बिलकुल खत्म कर डालेंगे।''

अनिमेष ने उसे एक झटके से रोक दिया। और कहा, ''चुप रहो, चिल्लाओ मत। मैंने कह दिया न कि तुम्हें भूलना होगा कि आज दोपहर को तुम उस घर की तरफ से निकली भी थीं। कौन जाने, साहब को इस बारे में पता हो।''

''साहब को पता है?'' कानन गुस्से से विफर उठी, ''तुम पागलों जैसी बातें क्यों कर रहे हो भला?''

अपनी सादगी से भरी बेवकूफी पर कुछ देर तक सोचते रहने के बाद अनिमेष ने अपने को सँभाल लिया। बोला, ''मजाक कर रहा था बाबा, मजाक कर रहा था।''

''तो फिर ऐसा कहो न...!'' कुछ शान्त हुई कानन। लेकिन फिर बोली, ''अब जो भी कहो, हम क्या कर सकते हैं कहकर बैठ जाना इन्सानियत नहीं। बेचारे साहब...बेफिक्र होकर दफ्तर चले जाते हैं और...इधर...''

अनिमेष ने फिर फटकार लगाते हुए कहा, ''तुम चुप रहोगी भी कि नहीं? अब तुम्हारे मुँह से मुझे ये बातें सुनाई नहीं देनी चाहिए। जो जैसा है, रहे।...''

''जो जैसा है रहे?''

''हमारा क्या बिगड़ता है? जो जैसा है, रहे।''

''यह भी कोई बात हुई?''

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