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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


कानन भी बड़ी भोली है...बल्कि बेवकूफ है...

''यही तो कह रही हूँ। दो स्टेशन के बाद ही घर लौट आये...''

''चुप भी रहो। यह तो बताओ कि जाकर देखा क्या? उनकी पत्नी से भेंट नहीं हुई क्या?''

डाँट खाकर कानन कुछ सकपका गयी। बोली, ''भेंट कैसे होती? जिस हाल में देखा...। तुम तो उनके घर घुसाकर चले गये। तेज धूप के कारण बगीचे की तरफ से जाने लगी। कौतूहलवश बगीचे की तरफ की खिड़की का पर्दा जरा-सा हटाकर भीतर झाँकते ही, उल्टे पाँव भाग आयी।''

''भाग आयी?''

''और नहीं तो क्या करती?'' भौंहें नचाकर कानन बोली, ''साहब और मेमसाहब दिन-दहाड़े, रात का मजा...''

''चुप। चुप भी रहो।'' अनिमेष बोला, ''तुम जरूर गलत मकान में घुस गयी

होगी।''

पति का तमतमाया चेहरा देखकर कानन हक्का-बक्का रह गयी। फिर भी वह यह मानने को तैयार न थी कि उससे कोई गलती हुई है। उलटे वह पति पर इल्जाम मढ़ते हुए बोली, ''हां, मैं जैसे कोई पागल हूँ। तुम खुद घर दिखाकर नहीं गये थे? दूर खड़े रहकर तुमने हाथ नहीं हिलाया था? उसके बाद क्या मैं गेट बन्द करके किसी और के यहीं चली जाऊँगी? साहब लोगों का क्वार्टर कोई हमारे क्वार्टरों की तरह एक-दूसरे से गड्ड-मड्ड तो नहीं होते कि गलती करती? यहीं से वहाँ तक तो क्यारी ही क्यारी है।"

बात तो सच थी!

अनिमेष चुप होकर पड़ गया।

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