कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
कानन का चेहरा लाल पड़
जाता, ''यह मैं न कर सकूँगी।''
''अरे
भई, तुम तो मजाक भी नहीं समझती हो।'' अनिमेष कहता, ''जाओगी, थोड़ा मिल-मिला
लोगी फिर चली आओगी। यहाँ 'ऊपरवाला'...'नीचेवाला' जैसी बातें कुछ ज्यादा ही
हैं। सूरज से ज्यादा गरम होती है रेत-इसी तरह साहब से ज्यादा मेमों की
इज्जत करनी पड़ती है। थोड़ा-सा फूल-फल नहीं चढ़ा तो नाराज हो जाएँगी।''
कानन कहती, ''जाऊँगी।
किसी दिन चली जाऊँगी।''
लेकिन तो भी जाना न हो
पाया।
आज
अनिमेष एक खबर ले आया। आकर बोला, ''अभी जाना हो तो जाओ। साहब कुछ दिनों के
लिए टूर पर गये हैं। इस घड़ी विरहिणी को सखी का साथ भी अच्छा लगेगा।''
हारकर कानन को जाना पड़ा।
दोपहर
को अनिमेष काम पर चला गया था-दूर से ही उनका घर दिखाते हुए। फागुन बीतने
वाला था, इसलिए हवा भी शरीर को भा नहीं रही थी। इतना-सा रास्ता चलना भी
अखर गया। चेहरा दिप गया।
लेकिन
जब तक अनिमेष घर वापस आया, तब तक तो इसके लाल रहने जैसी कोई बात नहीं थी।
वैसे कानन बहुत पहले घर लौट आयी थी तो भी उसका चेहरा तमतमा रहा था। होठों
पर अजीब-सी मुस्कान खेल रही थी। तमककर बोली, ''हूँ बाबा, तुम्हारे साहब
खूब बेवकूफ बनाते हैं। टूर पर जा रहे हैं, यह बताकर निकले और सीधे जाकर
बीवी के आँचल में जा छिपे।...उफ...मैं वहाँ पहुँचकर ऐसी शर्मिन्दा
हुई...'' अनिमेष को इस बात में कौतुक का कोई पुट नजर नहीं आया। लगभग चिढ़ते
हुए ढंग से बोला, ''क्या बहकी-बहकी बातें कर रही हो? साहब गये या नहीं
गये.. यह क्या मैं नहीं जानता? मैं खुद ट्रेन पर बैठा आया था।''
कानन फिर भी हँसती रही।
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