कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
इस
बीच कमला भी रसोईघर से थाल में रोटी और तरकारी परोसकर ले आयी थी और आसनी
के सामने रखकर उसने कहा, ''इस लड़की की आँखें तो आसमान पर टँगी रहती हैं।
उसे कुछ सूझे भी तो कैसे? मैं हाथ धोकर देती हूँ।''
''...अरे रहने भी दो...हो
गया'' त्रिभुवन ने उखड़े स्वर में कहा और फिर पूछा, ''मेरा खाना लगा भी
दिया?''
''मैं तो सोने जा रही
थी।''
''सोने जा रही हो?''
कमला
ने त्यौरी चढ़ाकर पति की ओर देखा। अभी सोने जाना तो बड़ी अजीब-सी बात लग रही
है। बात क्या हुई? वह बुरी तरह चिढ़ गये और बोले, ''यह आखिर बात क्या है?
तुम्हें हुआ क्या है?''
किसी डर से अचानक
त्रिभुवन सहम गये थे। उनके हाथ-पाँव ठण्डे हो गये।
कमला
की आँखों में यह कैसी आग सुलग रही है! त्रिभुवन के सीने की धड़कन रेल के
इंजन की तरह धड़कने लगी थी-और वह उसी स्थान पर जाकर गिर पड़ना क्यों चाहने
लगा था। त्रिभुवन उन आँखों के सामने से खुद को हटा लेंगे। वे तेजी से आगे
बढ़े और आसनी पर बैठ गये। फिर होठ चबाते हुए बोले, ''मजाल है किसी की जो यह
कह सके कि मुझे आज भूख नहीं है...अच्छी मुसीबत है।'' और ऐसा जान पड़ा कि वे
गुस्से में रोटी के बड़े-बडे टुकड़े तोड़कर मुँह में डालने लगे।
इसका
मतलब यह हुआ कि गाली-गलौज का दौर आज के लिए मुलत्वी हो गया। एक तरह से
अच्छा ही हुआ। कमला को भी लगा कि खाली पेट के मुकाबले भरे हुए पेट की
फटकार की चुभन थोडी कम होती है।
उसने
खिड़की के बाहर अपनी गर्दन उचकाकर देखा। सारा रास्ता बीरान हो गया था। और
आजकल की रातें पहले जैसी कहीं रहीं कि रात के बारह बजे भी बत्तियाँ जलती
रहें। अब तो रात के नौ बजने के पहले ही रात के चेहरे पर बारह का आकड़ा लिखा
जान पड़ता है।
अब भी यह लड़का पता नहीं
कहाँ है...किधर है।
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