कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
विशु
ने तभी दीवार पर टँगी पुश्तैनी घड़ी की ओर देखा और...और समय के पन्द्रह
मिनट आगे किये जाने का हिसाब लगाकर बोला, ''जय क्या अभी लौटेगा? यह समझ लो
कि उसके आने में अभी एक घण्टा और...।''
''कोख
से कैसा रतन पैदा हुआ है,'' त्रिभुवन की पत्नी ने मन-ही-मन कहा, ''दूध के
दाँत भी नहीं टूटे कि सर पर शैतान सवार। बकझक की बात तो दूर रहे कोई
अच्छी-सी सलाह तक देने की नौबत नहीं आती।...अब देर-सबेर जब भी आएगा तो
उसके नाम से दुनिया भर की गाली-गलौज का एक दौर चलेगा। इधर एक तरफ पेट में
आग लगी रहती है और दूसरी तरफ बेटा जब तक घर न लौट आए तब तक खाने पर बैठने
को जी नहीं करता।...और सारा गुस्सा निकाला जाता है मुझ पर। मेरी तो जान पर
बन आयी है...। तू भी तो मेरा बेटा है...एक ही जैसा साथ
पला-बढ़ा...लेकिन...''
''सभी एक जैसे नहीं होते
माँ...मैं ठहरा डरपोक...मेरी बात जाने दो...''और यह कहकर विश्वभुवन ने
किताब में अपना मुँह छिपा लिया।
कमला
ने रूबी को बुलाकर खाना लगाने को कहा। रूबी ने दो नक्काशीदार आसनी बिछाकर
दो गिलास रखे। फिर उनमें पानी उँडेलकर पूछने लगी, ''छोटे भैया का भी खाना
परोसकर रख दूँ।''
''अभी
रहने दे, ''कहकर कमला ने खिड़की से बाहर सड़क की तरफ देख लिया, इससे भी कोई
राहत नहीं मिली। कमला को गाली-गलौज का वह दौर झेलना ही पड़ेगा। और इस दूकान
पर पहुँचकर ही सारी दलीलों का खात्मा होता।
इस
बीच त्रिभुवन बाबू बाथरूम से लौट उमये थे और कमर में भीगा तौलिया लपेटे
हुए थे। उन्होंने कहा, ''रूबी, मेरी कोई फटी-पुरानी धोती हो तो ला दे। उसे
पहनकर सो रहूँ। धूल-माटी से लिथड़े कपड़ों को मैंने उतार फेंका है।''
रूबी ने इधर-उधर ढूँढ़कर
देखा और वापस आकर कहा, ''धोती मिल नहीं रही है.. लुंगी लाकर दूँ।"
''ठीक है...वही सही।''
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