कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
उसने अपने आपको सँभालते
हुए जोर से पुकारा, ''विशु बेटे....आ जा...रे खाना खा ले आकर।''
विशु आ गया।
उसने
देखा कि पिताजी खाने को बैठ गये हैं तो वह तनिक आश्वस्त हुआ। अगर पिताजी
खाना न खाकर हाथ-पर-हाथ धरे बैठे होते तो विशु को मन मसोसकर खाने के लिए
बैठना पड़ता।
''थोड़ी देर के बाद
खाऊँगा,'' उसने कहा।
''क्यों,'' त्रिभुवन बाबू
ने गर्दन उठाकर घड़ी की तरफ देखा और पूछा, ''क्या बात है? बाद में क्यों
खाओगे? रात कितनी हो गयी?''
''घड़ी भी तो पन्द्रह मिनट
आगे है,'' विशु ने उखड़े स्वर में आगे कहा, ''मैं थोड़ी देर और पढ़ लेता हूँ,
जय भी आ जाए तब तक....।''
''क्या कहा?'' अचानक
त्रिभुवन बाबू बम की तरह फट पड़े, ''कोई जरूरत नहीं है किसी के लिए इन्तजार
करने की। सबके सब खाना खा लो।''
यानी कि कमला भी।
त्रिभुवन
की बोली कमला को हद से ज्यादा कड्वी लगती है। उसका तेवर बड़ा उखड़ा-उखड़ा
रहता है। गुस्सा आया भी नहीं कि हमेशा की तरह एकबारगी सातवें आसमान पर चढ़
जाता है।
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