कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
कमरे में पतीली मँगवाकर
वहीं हाथ-मुँह धोनेवाली बात त्रिभुवन के लिए कोई नयी बात नहीं। कभी-कभी
विवश होकर ऐसा करना पड़ता है।
लेकिन
त्रिभुवन ने अचानक झिड़क दिया, ''नहीं...इस नवाबी ठाट-बाट की कोई जरूरत
नहीं। मैं आ रहा हूँ।'' और कन्धे पर तौलिया रखकर वह बाथरूम की तरफ बढ़ गये।
रूबी ने कहा, ''पिताजी तो
बड़े आराम से चल रहे हैं...कोई खास चोट नहीं लगी है।''
विश्वभुवन
ने भी, जो सारा कुछ देख रहा था, मुस्कराकर बोला, ''चूँकि किसी वजह से आने
में देर हो गयी थी इसलिए पिताजी ने एक कहानी गढ़ ली।''
विशु की माँ ने भी कहा,
''जो भी हो...एक आदमी की चिन्ता तो मिटी...। अब दूसरा कब घर आएगा...यह तो
वही जानता है या फिर भगवान।''
यह
दूसरा विशु की माँ का सबसे छोटा बेटा जयभुवन था। इस बार कॉलेज के पहले साल
में पढ़ रहा था। परीक्षा सर पर थी। इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता कि वह
नियमित रूप से कॉलेज जाता भी है या बिलकुल नहीं जाता। वह एकदम लापरवाह है।
सबसे अलग-थलग और बेखबर।
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