कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
हाथ का सरौता समेटती हुई
नन्दा ने अपनी छोटी-सी रुपहली डिबिया खौल ली और बोली, ''अरी बहू थोड़ी-सी
लोगी?''
''ओ...माँ'',
आभा ने चिहुँकते हुए कहा, ''उस दिन इसे खाने के बाद कैसी दुर्गत हुई थी।
अच्छा...बस...जो भर देना। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे भाई से दोवारा झिड़की
खानी पड़े।''
''अरे
काहे की झिड़की...'' नन्दा ने डिबिया को अपने कलेजे से लगा लिया और फिर
होठ बिचकाकर बोली-''देखना, तुम्हें यह जर्दा खिलाकर, भाई से सोने की
डिविया गढ़वाऊँगी और तभी मैं यहाँ से जाऊँगी।''
''फिर तो हो
गया'',...कहते-कहते आभा थम गयी।
अपर्णा आ रही थी।
बाभन रसोइये की...के बाद,
थोड़ी देर के लिए उसे छुट्टी मिली है।
''यह
क्या बड़ी बहू?'' नन्दा ने छूटते ही कहा, ''अब जाकर काम पूरा हुआ है
तुम्हारा? अगर चौबीसों घण्टे रसोईघर में पड़ी सड़ती रहोगी तो आखिर यह रसोइया
किस काम का है भला! क्या उसे खाना पकाना नहीं आता?''
''नहीं, पकाना क्यों नहीं
आएगा भला? बस मुझे ही पड़ी रहती है।'' यह कहते हुए अपर्णा मुस्करायी। और
सीढ़ी की ओर चल पड़ी।
यह
समय वह ऊपर अपने कमरे में ही बिताती-किताबें या पत्रिकाएँ पढ़कर। इसके बाद
वह रात को दस बजे नीचे उतरेगी। तब तक श्रीकुमार वापस आ जाएँगे और बच्चों
के मास्टर विदा होंगे। सुकुमार का पूजा-पाठ सम्पन्न होगा और इसके साथ ही
खाने-पीने की गहमा-गहमी शुरू होगी।
अचानक दोनों सखियों की
आँखों में बिजली-सी दौड़ गयी। इस बिजली में और कुछ नहीं किसी षड्यन्त्र का
संकेत था।
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