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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


लेकिन देह में आग लगने का कारण सिर्फ यही नहीं है।

तो क्या अपर्णा है?

या अपर्णा के होठों के कोने की वह खास बनावट। आखिर ऐसी क्या बात है कि आभा उससे अच्छी तरह आँखें नहीं मिला सकती? क्यों अपर्णा के सामने खड़े होने पर उसे अपना कद बौना नजर आता है। और ही, यह बात मन की ओट नहीं ले पाती क्योंकि हीनता का यह अहसास भी मन में ही होता।

और जहाँ अपर्णा की लोग हँसी उड़ा पाते, वहाँ अपर्णा ही लोग-बागों की बराबर खिल्ली उड़ाती रहती थी-अपनी उस अदृश्य हँसी की धारदार कटार से। भाग्य की विडम्बना के चलते जिससे स्त्री का धूल में मिल जाना तय था, उस कलंक की छाया तक अपर्णा के चेहरे पर नहीं है। वह देखकर देह में आग नहीं लगे भला?

आखिर उसे किस बात की खुशी है? उसकी इस प्रसन्नता का राज क्या है?

यह सब सोच-सोचकर आभा विचलित और उद्विग्न हॉ उठती है।...बात क्या है? क्या अपर्णा यह समझती है कि उसके पति की करतूत के बारे में किसी को नहीं मालूम? क्या सारी दुनिया के लोग इतने बेवकूफ हैं? हाँ, इतना जरूर है कि डंके की चोट पर कोई इस बात की घोषणा नहीं करता। वह इसलिए कि इससे तुम्हारी इज्जत में बट्टा न लगे।

खैर, इतने दिनों के बाद एक श्रोता तो मिला जिसके सामने जहर उगलकर अपनी भड़ास कम की जा सके। हालाँकि बीच-बीच में नन्दा के फूहड़पने पर आभा सिर से पैर तक सुलग उठती लेकिन वह यह सब सहन कर लेती। इसकी वजह और चाहे जो हो नन्दा को...करना तो नहीं पड़ता।

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