कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
वह जब अपने पाँव को सचमुच
खींच पाने की स्थिति में न थे तब पुकार उठे, ''विशु...''
त्रिभुवन
का बड़ा लड़का विश्वभुवन अबकी बार एम. ए. की परीक्षा दे रहा था। वह बाहर
वाले कमरे में ही पढ़-लिख रहा था। तेजी से बाहर निकला और हैरानी में भरकर
बोला, ''पिताजी, आप! बात क्या है? क्या हुआ? इतनी रात गये...आप कहीं गिर
तो नहीं गये थे?''
त्रिभुवन
ने इतनी सारी बातों के उत्तर में इतना ही कहा,''मेरा हाथ तो पकड़।'' अपने
बाप की आवाज भी विश्वभुवन को अनजानी-सी जान पड़ी। वे इस तरह उखड़े-और कडुवे
ढंग से तो कभी बात नहीं करते। ऐसा कैसे सम्भव हो गया? त्रिभुवन को जान पड़ा
कि उन्हें इतनी देर बाद रोशनी की एक किरण दीख पड़ी है। वे बोले-''हाँ, गिर
पड़ा था।"
''कब कहां?''
त्रिभुवन की पत्नी रसोईघर
से बाहर निकल आयी और लगभग चीखकर बोली-''गिर पड़े थे...। कैसे...कहां?''
''बस से नीचे उतरते
हुए''-त्रिभुवन ने कराहते हुए बताया, ''मैं अपने घुटने हिला नहीं पा रहा।''
बेटी-बेटे
और पत्नी सभी आ जुटे-त्रिभुवन के घुटने के पास। नौवें दर्जे में पढ़नेवाली
रुचि बिटिया ने कहा, ''मैंने जैसे ही पिताजी को रिक्शे से उतरता देखा तभी
समझ गयी थी कोई-न-कोई बात है जरूर। वर्ना पिताजी पैसे खर्च करने से
रहे...''
''चुप भी रह...जब देखो
जुबान चलाती रहती है,'' पत्नी बोली, ''हां जी...कहीं हड्डी-वड्डी तो नहीं
टूटी?''
''क्या पता?'' त्रिभुवन
ने कहा।
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