कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
त्रिभुवन किस तरह भागे?
दायें...बायें...आगे...पीछे...?
चारों
तरफ से आग के बगूले छूट रहे हैं...। दौड़कर चला आ रहा है गोरा-चिट्टा और
घनी दाढ़ी-मूँछवाला एक युवक...वह भागता हुआ आता है और त्रिभुवन के सामने
औंधा पड़ जाता है...
उसे परे हटाकर त्रिभुवन
किस तरह भागे?
लेकिन
बिना कुछ सोचे-विचारे त्रिभुवन भागने लगे। किस ओर...यह उन्हें पता नहीं।
अगर वहाँ त्रिभुवन को जाननेवाला कोई होता तो वह यही कहता ''यह आदमी जोड़ों
के दर्द का बहाना किये हुए है। अगर इसके घुटनों में गठिया का रोग
है...नामुमकिन...। अगर ऐसा होता तो इस तरह खूँटे तुड़ाकर न भाग रहा होता
बेचारा।''
लेकिन यहाँ भला कौन
है...उसका परिचित। सब-के-सब अनजाने है-ये रास्ते...दूकानें..
मकान...लोग-बाग...।
उन्हें
खुद यह मालूम नहीं कि कितनी देर बाद और कहीं उन्हें एक खाली रिक्शा मिला।
उस पर बैठ जाने के बाद उन्होंने बताया कि कहीं जाना है उन्हें।
काफी देर के बाद...
त्रिभुवन पूर्व परिचित दृश्य देख पाये-मकान... द्वान... सड़क और रास्ते पर
चलनेवाले लोग।
लेकिन
ये सब इतने धुँधले क्यों थे? इस वक्त यह कोहरा कहीं से छा रहा है? तो
भी-त्रिभुवन एक जाने-पहचाने मकान के सामने ही रुके। और यह देखकर किसी को
भी हैरानी हो सकती थी कि रिक्शावाले को पैसे भी उन्होंने गिन-गिनकर ही
चुकाये।
इसके बाद अचानक जोड़ों में
उभरने वाला वह गठिया का दर्द सिर्फ घुटनों में ही नहीं पूरे शरीर में जैसे
अपने पैने दाँत गड़ाने लगा।
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