कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
वे
तीनों ही त्रिभुवन को सहारा देते हुए सोनेवाले कमरे तक लिवा लाये और
उन्हें चारपाई पर लिटा दिया। सभी निचली मंजिल पर रहते थे इसलिए कोई खास
दिक्कत नहीं हुई।
विशु
ने पिताजी की धोती को ऊपर उठाकर पाँव का बड़े गौर से मुआइना किया।
नहीं...कहीं टूटा-फूटा तो नहीं। कहीं जख्म लगा होता तो रास्ते की धूल से
टिटनेस होने का खतरा होता।
और हड्डियाँ...?
लगता है हड्डियाँ
सही-सलामत हैं शायद। अगर कोई हड्डी टूट या चटख गयी होती तो वे इतनी दूरी
तय कर घर तक आ पाते? कभी नहीं।
अब तो बेहतर यही होगा कि
गरम पानी से सेंक देने पर और...आयोडिन या ऐसी ही कोई दवाई लगा दी जाए।
लेकिन इतनी देर तक
त्रिभुवन रहे कहां?
दफ्तर
से तो सीधे घर जाना तय रहता है शाम के छह बजे तक। बहुत हुआ तो साढ़े छह-सात
बजे तक। इसलिए कि बसों में देर हो ही जाती है। त्रिभुवन वैसे भी दफ्तर से
इधर-उधर नहीं जाते, सीधे घर ही जाते हैं।
इस सवाल का जवाब देते हुए
त्रिभुवन खीज उठे थे।
''अच्छी मुसीबत है...कहां
जाएँगे भला? खुद चलकर आने की स्थिति में नहीं थे...इसलिए एक मकान की
ड्योढ़ी पर बैठ गये थे।''
लेकिन
पत्नी का जी यह सब देखकर बड़ा ही खट्टा हो गया था। उसने पूछा, ''ही
जी....रास्ते पर आने-जानेवालों में से किसी ने थोड़ी-सी भी सहायता न की?''
''सहायता....हुँ....। कौन किसकी सहायता करता है यहीं?...'' त्रिभुवन एक
बार फिर झुँझला उठे,''अरे किसको पड़ी है...?''
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