कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
त्रिभुवन
के शरीर की जो हालत है उसमें ट्राम या बस की भीड़ को इस तरह ठेलकर या भेदकर
कोई काम करने जाना अव नामुमकिन होता जा रहा है। लेकिन उसके न चाहने से
क्या होगा? या कि न कर पाने से भी कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। यह तो
परिस्थितियों पर निर्भर है। त्रिभुवन के ममेरे भाई की घरवाली अपने बाप की
मौत के गम में पिछले तीन महीनों से बिछावन से उठ नहीं पायी है। जबकि
त्रिभुवन की स्त्री को अपने गोद के बच्चे के छिन जाने के अगले ही दिन,
दूसरे बच्चों के लिए चूल्हा-चौका सँभालना पड़ा था।
इसलिए कर पाना या न कर
पाना जैसी कोई बात नहीं है।
अगर
ऐसा न होता तो अपने सारे होशोहवास खोकर...और चारों ओर क्या कुछ हो रहा
है...इससे बेखबर वह लगभग एक किलोमीटर रास्ता तय कर दौड़ा चला आता?
त्रिभुवन...जो उठते-बैठते 'माय रे' और 'बाप रें' किया करते हैं।
वह
किसी तरह भागते-दौड़ते आये और गली में घुसते ही एक टूटे-फूटे मकान की
ड्योढ़ी पर बैठकर हाँफने लगे। वह जोड़ों के दद की बात भूल ही गये थे शायद।
उनके सीने में धौंकनी-सी चल रही थी और दिल गेंद की तरह बार-बार उछल रहा
था। इस उछाल के थम जाने के वाद ही वह कहीं और जाने के बारे में सोच सकते
थे। लेकिन उनका दिल क्या इसलिए धड़क रहा है कि वह तेजी से दौड़कर आये हैं।
उस आदमी के चलते नहीं जिसने चीखकर उनसे उतर जाने के लिए कहा था। ऐसी
आवाजों से तो त्रिभुवन बुरी तरह परिचित हैं। उनके शरीर का एक-एक
रोयी-रेशा... रक्त-मांस-मज्जा... मन-प्राण-आत्मा... सोच और सरोकार... सब
परिचित हैं ऐसे तीखे कण्ठ-स्वर से।
तो
भी, अचानक यह स्वर वड़ा अनजाना और डरावना-सा जान पड़ा। जाने-पहचाने और
अपरिचित स्वरों के इस अन्तर को झेल न पाने की वजह से ही त्रिभुवन... इस
तरह
हाँफ रहे थे।
उस मकान के अन्दर से एक
आदमी बाहर निकल आया और ऊँचे स्वर में बोला, ''कौन है?''
ऐसी
परेशानी की कोई बात न थी कि इस तरह गला फाड़कर यह सवाल किया जाए। लगता है
सारी दुनिया का सरगम ही ऐसे पंचम में बाँधा गया है कि हर आदमी उसी सुर में
सुर मिलाकर बोलने लगा है।
''यहाँ क्या हो रहा है?''
ऊँचे सुर में उस आदमी ने पूछा।
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