कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
|
5 पाठकों को प्रिय 3465 पाठक हैं |
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
''कुछ नहीं...'' त्रिभुवन
बोले, ''थोड़ा आराम कर रहा हूँ...।''
''इस तरह हाँफ क्यों रहे
हैं...? दमे का रोग तो नहीं?''
''नहीं..
नहीं...वो जरा जोड़ों में दर्द था...ओ...,'' त्रिभुवन ने अपनी सूखी जुबान
को हलक से बाहर निकालते हुए कहा था, ''तेजी से दौड़ने की वजह से...।''
''क्यों,'' उस आदमी ने शक
की नजर से देखते हुए पूछा, ''दौड़कर आने की
क्या जरूरत थी भला? पुलिस
की जीप खदेड़ रही थी?''
पुलिस जीप!!
त्रिभुवन ने हैरानी से
पूछा, ''पुलिस की जीप तो कहीं नहीं दिखी!''
''नहीं
दिखी...इसका क्या मतलब? अभी-अभी तो मैंने घर की छत से देखा कि पुलिस की
जीप चक्कर काट रही है और रास्ते पर लोग बेतहाशा इधर-उधर दौड रहे हैं। आप
यहीं कितनी देर से आकर बैठे हुए हैं?'' उस आदमी के स्वर में अब भी सन्देह
का काँटा चुभा हुआ था।
कितनी
देर से? त्रिभुवन ने इधर-उधर देखा। उसे लगा उसकी सारी दिशाएँ खो गयी हैं।
कब से बैठे हुए हैं वे...शायद युगों से...युग-युगान्तर से। घुँघराले बालों
वाले मोम के खिलौने जैसे एक शिशु के चिहुँकने की आवाज किस गलियारे से आ
रही है, इसी बारे में सोचते-सोचते वह शायद यह भूल गये हैं कि कितनी देर हो
चुकी है?
त्रिभुवन उठ खड़े हुए।
अपने सीने को दबाते हुए।
उस
आदमी ने तभी पीछे से कहा, ''अरे महाशय...आपको तो दिल की बीमारी है। जल्दी
से कोई रिक्शा-विक्शा लेकर किसी डाँक्टर के दवाखाने या क्लिनिक जाइए। इस
मोहल्ले में किसी दूसरे मोहल्ले का आदमी मर-मरा जाए तो बड़ी मुसीबत हो
जाएगी यहाँ।''
|