कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
|
5 पाठकों को प्रिय 3465 पाठक हैं |
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
अधूरी तैयारी
ऊपर बैठे सज्जन की धारदार आवाज सुन पड़ी, ''बस नीचे उतर आइए शायद...फटाफट...।''इस बात को स्वीकार करना ही होगा कि जो कुछ कहा गया था वह बड़े भद्र-भाव से कहा गया था। वह बड़े आराम से कह सकता था ''अबे स्सालो...बस खाली करो।''
लेकिन नहीं। कहा गया था, ''उतर आइए...।''
बस में भरी भीड़ हड़बडाकर नीचे उतर आयी। सीट पाने वाले खुशनसीबों के मुकाबले खड़े रहने वाले बदनसीबों की संख्या ही ज्यादा थी। अचानक पासा पलट गया। ऐसे ही बदनसीबों को पहले उतरना पड़ा और वे भाग्यवान यात्री जो धक्कम-धक्का और ठेलम-पेल करके अन्दर घुसे थे, उन्हें आखिरी ठिकाने तक जानेवाले मुसाफिर के रूप में वहीं टिके रहना पड़ा।
लेकिन त्रिभुवन चक्रवर्ती की तरह इतने पीछे कोई नहीं रह गया था। सारी बस एक ऐसी दियासलाई की तरह दीख रही थी, जिसकी सारी तीलियाँ खत्म हो गयी हों। त्रिभुवन अब भी गठियाग्रस्त घुटनों के साथ कसरत कर रहा था।
ऊपर बैठे आदमी की आवाज एक बार फिर सुन पड़ी, ''क्या बात है दादा जी...आपका ट्विस्ट नाच पूरा नहीं हुआ...और कुछ बाकी है?''
दूसरे ही पल उसने धमक दिया, ''अच्छा मजाक है...? जल्दी नीचे उतरिए।''
त्रिभुवन नीचे उतर गये। वे हैरान थे कि सिर्फ दो ही मिनट के दरम्यान बस पर सवार इतने सारे लोग आतिशबाजी की चिनगारियों की तरह पता नहीं, कहाँ गायब हो गये। तमाम रास्ते सुनसान दीख रहे थे...खाली...बियाबान।
त्रिभुवन ने तय कर लिया कि जो हो सो हो। उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। घुटने का दर्द भूलकर वे तेजी से आगे बढ़ चले। हालाँकि कदम-कदम पर उनके पाँव में जरब पड़ जाता लेकिन उन्हें ठीक-ठीक यह नहीं जान पड़ता कि दरअसल यह टीस है कहीं? घुटनों में ही...या कहीं और?
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book