कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
''जाने
भी दो माँ....चली आओ। भाभी जी....भाभी जी...कहकर रोने की जरूरत नहीं। मैं
समझ गयी किसकी कितनी औकात है। और तुम्हें बेटी की इज्जत का हौवा खड़ा कर इन
बाबू लोगों के सामने गिड़गिड़ाने की कोई जरूरत नहीं। इन बाबुओं के लिए हम
गरीब लोगों की इज्जत की कोई कीमत नहीं। ठीक है, हम लोग जब छोटे लोग हैं तब
छोटे लोगों की तरह ही रहेंगे।....और इसमें चाहे जैसी भी दुर्गत झेलनी
पड़े....हम झेलेंगे।...''
सीढ़ियों पर तेज कदमों से
चलने की जोरदार धमक सुमित्रा के कानों में पड़ी। और इसके बाद सब
कुछ...खामोश हो गया।
महीतोष
कमरे में तमतमाता हुआ आया और बोला, ''सुन लिया न....अब तो मर गये न
तुम्हारे कान के कीड़े! उस लड़की को तुम बड़ा भला और बड़ा सभ्य कह रही
थी।....हुं हँ।''
सुमित्रा
कोई उत्तर नहीं दे पायी। एक लड़की की इज्जत बचा न पाने की उसकी हैसियत तक
जवाब दे गयी थी और इसलिए वह अपना सिर तक उठा नहीं पा रही थी।
सवाल था कि वह कौन थी और
सवाल किसकी इज्जत का था!
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