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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


बड़ी जेठानी ने अपर्णा की ओर देखते हुए खीजभरे स्वर में कहा, ''दीदी, मुझे तो यही लगता है कि वह कभी सयानी नहीं होगी। होगी? अब भी वैसी ही बेवकूफियाँ करती फिर रही है। जी जल उठता है मेरा। हर घड़ी चुहल सूझती रहती है।''

अपर्णा के होठों की बनावट कुछ खास ही थी। देखने वालों को हमेशा यही जान पड़ता कि कोई झीनी-सी मुस्कान बाहर फूट पड़ने के लिए झाँक रही है। लेकिन वह मुस्कान व्यंग्य से भरी होती थी।

बनावट तो बनावट ही है लेकिन आभा को यही जान पड़ा कि उसके उत्तर में वही तीखी मुस्कान मुखर हो गयी है। लेकिन ऐसा नहीं था। जवाब उसने बड़े सहज ढंग से ही दिया था। बोली, ''किसी का स्वभाव भी बदलता है, छोटी बहू? ऐसा होता तो सारे शास्त्र झूठे हो जाते।''

आभा ने मन-ही-मन कहा, ''हाँ, ऐसा तो तुम्हीं कह सकती हो। और चारा भी क्या है?''

हालाँकि यह सब नन्दा के यहाँ आने के पहले दिन की गाथा थी। इसके बाद के अगले दस दिन भी बीत चुके हैं और पता नहीं पांसे की ऐसी कौन-सी चाल थी कि मुँहफट और बेहया नन्दा के साथ भली-चंगी आभा की गोटी कैसे फिट हो गयी? वह नन्दा से उम्र में कितनी भी कम हो, आठ-नौ साल छोटी थी, और उम्र में भले ही छोटी हो-मान-सम्मान में तो कुछ कम नहीं थी? और यही वजह थी कि दोनों पलड़े का तालमेल ठीक बैठ गया।

हर घड़ी हँसी-मजाक, फुसफुसाहट भरी बातों और गुनगुनाहट में कोई कमी नहीं थी। साथ जुड़ी नहीं कि पान खाने और सुपारी काटने में सारा समय बीत जाता। नन्दा चबर-चबर पान चबाती रहती और दिन में पाँच-सात बार पनबट्टा खोलकर बैठे बिना उसे चैन नहीं पड़ता। इस काम में छोटी बहू भी कुछ कम नहीं थी। आज भी वह पान पसारे बैठी थी और नन्दा भी हाथ में सरौता लिये, पाँव फैलाये सुपारी काट रही थी। दोनों के चेहरे पर टेढ़ी मुस्कान खेल रही थी। श्रीकुमार के बाहर निकल जाते ही उन दोनों ने आँखों में ही एक-दूसरे को जो इशारा किया, गनीमत है इसे किसी ने देखा नहीं।

जेठजी के कारनामों और करतूतों की चर्चा कर घड़ी भर जी बहलाने को तो कोई मिला। आभा के लिए यही राहत की बात थी।

पति के साथ जेठजी के बारे में दो-एक बातें होती जरूर थीं। लेकिन उस निन्दा या चुहल में कोई रस नहीं होता था। दो-दो नौकरानियाँ थीं लेकिन सूखी और सपाट। वे इस तरह के इशारों का ककहरा तक समझ नहीं पाती थीं। बड़े बाबू की बात चली नहीं कि उनका भक्ति-भाव उमड़ने लगता। और ऐसा क्यों न हो भला! जो आदमी घर में सुबह-शाम घण्टा-घण्टा भर सन्ध्या-पूजा-ध्यान किये बिना जल तक ग्रहण नहीं करता, प्रतिदिन गंगास्नान करता है और नियम-उपवास के बीच स्त्रियों का मुँह तक नहीं देखता। इतना ही नहीं, बर्तन-भाँड़े और घर-द्वार की सफाई और रख-रखाव के बारे में सुकुमार को कोई कम परवाह दहती है? भैया की तरह अपनी सज-धज बनाये रखना उसे नहीं आता।

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