कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
''लेकिन...अब
क्या बताऊँ भाभी...,'' बासन्ती का स्वर धीरे-धीरे किसी दार्शनिक की तरह
गम्भीर होता गया, ''भगवान की नजर भी कंजूसों जैसी होती है भाभी! वह खुले
मन से कुछ देना नहीं चाहता। अगर एक तरफ से कुछ देता है तो दूसरी तरफ से ले
लेता है। मैं उस सुख को ज्यादा दिन भोग न पायी। बुढ़िया में अब एक नयी सनक
पैदा हो गयी थी...रात-रात भर जगने की। रात को आँखें फाड़े बैठी रहती और
फरमाइश करती रहती है। अपने बेटे और बहुओं को बुला-बुलाकर कहती है 'रोशनी
जला दे...पंखा बन्द कर दे'...तो कभी कहती है 'पंखा चला दे...बत्ती बुझा
दे...ला जरा पानी पिला...पान लगा दे, वही चबाऊँगी'...और जरा देर हुई नहीं
कि गाली-गलौज शुरू। अब उसके लड़के-वाले जो दिन-दिन भर भाग-दौड़ करते हैं..
लम्बा-चौड़ा कारोबार सँभालते हैं...रात को होनेवाले इस हंगामे को भला कैसे
झेल सकते हैं? अब उन्होंने मुझे पकड़ा। कहते हैं, 'हम तुम्हें दस रुपये
ज्यादा देंगे...तू रात को रुक जाया कर।' साथ ही यह भी धमकी दी है कि अगर
मैं राजी न हुई तो वे किसी दूसरे को रख लेंगे।...अब मैं क्या करूँ...किस
तरफ देखूँ...अजीब उलझन है! इस बीच लोगों के घर झाड़-बर्तन करने वाला काम भी
गँवा बैठी हूँ....कोई उपाय नहीं रहा। क्या करती मैं? बड़े लोगों का मामला
है...एक ही बात में नौकरी जा सकती है। है न...भाभी...। आप ही बताइए?''
सुमित्रा क्या कहे, समझ न
पायी! बस इतना ही बोली, ''सो तो है।''
''सो तो है...कहने से ही
यह आफत नहीं टलेगी। आपके दरवाजे पर खड़ी हूँ..., अब आप पर है कि मार डालिए
या आसरा दीजिए।''
सुमित्रा
बासन्ती की दिक्कत समझ रही है। उसके मन में बासन्ती के लिए सहानुभूति भी
है। लेकिन आसपास इतने घर-द्वार होते हुए भी सुमित्रा के घर का दरवाजा ही
क्यों? यही बात वह समझ नहीं पाती। बासन्ती ने इतने लोगों के यहीं काम-धाम
किया है...सुमित्रा के पास तो वह कुछ ही महीने रही थी। अभी वह जिनके घर
में है वे लोग बासन्ती को दस रुपये ज्यादा देने को तैयार हैं और इसके बदले
रोगी की देखभाल करवाना चाहते हैं।
सुमित्रा
भी इसी बात को आगे बढ़ाती हुई कहती है, ''तो फिर उसी घर में ले जाकर क्यों
नहीं रखती हो। उस बड़े आदमी की लम्बी-चौड़ी कोठी है। रोगी की दवा-दारू के
साथ बेटी की देख-रेख भी हो जाएगी।''
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