कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
सुमित्रा
ने यह तो जरूर कहा था कि तू तो इतने दिनों से काम कर रही है। लेकिन तब ऐसा
कुछ नहीं था। सुमित्रा की पुरानी नौकरानी गाँव चली गयी थी। तभी कोई चार
महीने तक बासन्ती ने सुमित्रा के यहाँ काम किया था। बासंती स्वभाव से तो
अच्छी थी ही, उसके काम में भी सफाई थी। इसीलिए सुमित्रा उसे भूल न पायी थी।
अब
इसी बात के भरोसे सुमित्रा ने यह अनोखा प्रस्ताव रखा था। टोले-मोहल्ले में
न जाने कैसे-कैसे उचक्के और आवारा छोकरे आकर जमा हो गये हैं, उनकी बेहूदगी
से बासन्ती की बेटी का यहाँ टिकना मुश्किल हो जाएगा।
बासन्ती को तो
मेहनत-मजूरी कर पेट पालना पड़ेगा।
बेटी को अगोरकर रखने से
तो काम चलेगा नहीं।
दिन भर चक्कर-घिन्नी की
तरह मेहनत किये बिना दो-दो प्राणी का पेट पालना और झुग्गी का किराया
जुटाना...कोई खेल नहीं है।
अभी
कुछ ही दिन तो हुए हैं जब भगवान ने अपनी आँखें उसकी तरफ उठायी थीं। तभी तो
बासन्ती को एक अच्छी-सी चाकरी मिल गयी थी। एक बड़े घराने की वृद्धा की
देखभाल। सत्तर रुपये महीना। ऊपर से खाना और कपड़ा। तेल-साबुन...मर्जी
मुताबिक पान-जर्दा और चाय। काम था भी कितना...? वृद्धा की देख-रेख,
दवा-दारू और उल्टी-सीधी फरमाइश। वृद्धा वैसे तो गठिया से पीड़ित थी लेकिन
बड़ी शौकीन तबीयत की थी। साबुन लगाकर नहाओ-धोओ...तेल-फुलेल डालकर बाल बना
दो....जोड़ों का दर्द दूर करनेवाले तेल से अच्छी तरह मालिश करने के बाद
पाउडर लगा दो। घर की बहू और बेटियाँ भला यह सब कहां से कर पाएँगी? और
तब....जबकि घर में पैसे की कोई कमी नहीं हो।
यही वजह थी कि वहाँ
बासन्ती को इतने रुपये देकर इतने ठाठ में रखा गया था।
''मैं
तो सुख के सागर में तैर रही थी, भाभी,'' बासन्ती ने कहा, ''सुबह पाँच बजे
निकल जाती थी और रात के दस बजे लौट आती थी। मेरी बिटिया तब तक कभी इसके
घर, तो कभी उसके घर बैठी रहती। मैं जब घर वापस लौटती तो उसे अपने साथ लिवा
लाती। रात का खाना मालकिन के घर नहीं खाती थी बल्कि साथ ले आती थी-दोनों
माँ-बेटी का उसी में चल जाता था। यह कहा जा सकता है कि दुनियादारी का कोई
खरचा ही नहीं था। दोपहर के बखत अपने लिए थोड़ा-सा भात उबाल लेती थी और वही
खा लेती थी। जो पैसे मिलते थे...वह एक तरह से जमा हो जाते थे। बिटिया की
शादी के लिए जमा करती थी।...
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