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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


भाई खाने को बैठे हों तो वह तपाक से वहाँ पहुँच जाती। फिर मीठी चुटकी लेती हुई आसमान सिर पर उठा लेती, ''मैं क्या बके जा रही हूँ, सुन भी रहे हो भले लोगो! यह मुँहजली जिन्दा भी है कि मर-मरा गयी-एक बार भी कभी इस बारे में कोई खोज-खबर ली है? कोई ऐसा भी पराया हो जाता है? छीः...छीः...छीः...। अगर दो दिन के लिए तुम्हारे घर पसर भी गयी तो आखिर तुम्हारा कितना कुछ भकोस लूँगी। और इस घर पर भी हाल यह है कि एक बेला के लिए मुट्ठी भर अरवा चावल का भात तक नहीं जुटता।''

श्रीकुमार ने हँसते हुए उत्तर दिया था, ''अरे भई...अब अरवा चावल जैसी चिकनी और महीन चीजें कहीं मिलती हैं आजकल। अब यह तो नहीं हो सकता कि तुम्हें मान-सम्मान से बुलाकर फाका करने को मजबूर करें और तुम्हारी जान ही ले लें।''

''अच्छा, अरे बाबू लोगो! दरअसल आदर और जतन करने की चाह होनी चाहिए। फिर तो घास की रोटी भी खायी-खिलायी जा सकती है समझे?''

''अच्छा'', सरल स्वभाव वाले श्रीकुमार ठठाकर हँस पड़े, ''तो फिर मैं चला घास के तिनके के जुगाड़ में...तेरे लिए सहेजकर रखना ही पड़ेगा।''

नन्दा ने अपनी सफेद समीज के अन्दर से एक छोटी-सी रुपहली डिबिया निकाली। फिर उसका ढक्कन खोलकर सुगन्धित जर्दा की एक चुटकी फाँकते हुए छोटे भैया सुकुमार के पास अपनी दलील लेकर गयी, ''देखा तुमने सुकुदा, यह सब घर बुलाकर जान-बूझकर किया गया अपमान ही तो है। वह मुझे अब घास-पात खिलाएगा?''

अपने बड़े भाई श्रीकुमार से सुकुमार का स्वभाव एकदम अलग है। उसकी प्रकृति गम्भीर और बातचीत पढ़े-लिखे समझदार लोगों जैसी है। पहनावा और चाल-ढाल घर के कर्त्ता-धर्ता की तरह। इस तरह की बेतुकी बहस या बेकार की हँसी-ठिठोली उसके गले नहीं उतरती। इसके अलावा उसने इधर जब से गुरु-मन्त्र की दीक्षा ली है वह और भी शान्त और चुप्पा-सा हो गया है।

वह अपने भैया के साथ सहन पर एक साथ खाने को बैठता तो जरूर था लेकिन साथ वाली कतार में नहीं। वह शुद्ध निरामिषभोजी था जबकि श्रीकुमार बिना मछली के मुँह में एक ग्रास तक नहीं रखते थे। सुकुमार भैया के सामिष भोजन वाले थाल की ओर एक बार घृणा और अवसाद भरी उदासीनता से देखते हुए वह आचमन कर खाने को बैठ जाता और भोजन के बाद, कुल्ला करने तक दोबारा कोई बात नहीं करता। यही वजह थी कि वह नन्दा की किसी बात का जवाब नहीं दे पाता था।

''लगता है बहू ने इसे आँचल से बाँधकर ही नहीं रख छोड़ा है, इसे गूंगा और बहरा भी बना डाला है।''-नन्दा हँस-हँसकर कहती।

और उधर रसोईघर में आभा जलती-भुनती रहती। एक तो उसे औरतों का इस तरह का बड़बोलापन पसन्द नहीं था, दूसरे सुकुमार के आचार-व्यवहार पर इस तरह ताने मारा जाना, उसे एकदम नहीं भाता था।

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