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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


शशि कुण्डु के मकान के सामने अब भी दो-चार लोग इकट्ठा थे। थोड़ी देर पहले ही पुलिस आयी थी और लाश ले गयी थी। उसने बाप-बेटे....शशि और शरत......दोनों को हिरासत में ले लिया था।

आसपास खड़े लोग इस दर्दनाक घटना को लेकर तरह-तरह के दोष मढ़ रहे थे। कुछ लोगों को इन सारी बातों में बड़ा रस मिल रहा था और ऐसे लोगों की तादाद कहीं ज्यादा थी।

''अरे इस शशि कुण्डु की अकड़ बहुत बढ़ गयी थी। सारी दुनिया उसके लिए छोटी हो गयी थी।......और उसका अभागा बेटा तो जैसे पागल ही हो गया है। जब देखो तब नशे में चूर रहता है। उस दिन बागानपाड़ा में....नशे की झोंक में कैसी-कैसी बदतमीजियाँ कर गया।....अब उसका बाप चाहे जितना झूठ गढ़े....किस्से गढ़े और मामले को सजाए......यह मामला दबेगा नहीं। अब तो बाप-बेटा दोनों ही जेल की चक्की पीसेंगे।"

''क्या कहते हो....हां! जरा इसकी अकड़ तो कम हो।''

''अरे....कुण्डु के घर के सामने रिक्शा पर से कौन उतरा?''

"शरत का ससुर ही तो जान पड़ता है। है न?''

''उसे कैसे खबर मिल गयी?"

''क्यों......इस मोहल्ले में उसके कुछ कम दुश्मन है?''

रिक्शावाले को भाड़ा चुकाने के बाद जब बलराम इधर-उधर देखने लगा तो लोग छितरा गये। कोई जरूरत नहीं है बाबा......। अगर जो उनसे पूछ बैठे, कि आप लोग तो गवाह हैं न...? माफ करना....! यह तो सभी चाहते हैं कि हत्यारे को सजा मिले लेकिन कचहरी मैं गवाही देने को कोई राजी नहीं।

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