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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


रिक्शे पर सीधे तनकर बैठ गये और बोले, ''अरे चलो भैया, आनन्दमयी मोहल्ला है।"

रिक्शा थोड़ी दूर आगे बढ़ाने के बाद रिक्शावाले ने पूछा, ''आनन्दमयी मोहल्ला...? वहाँ किसके यहाँ जाय रहे हैं, बाबू?''

बलराम का मिजाज अब भी उखड़ा हुआ था। उसने उसी कड़वाहट से कहा, ''बस रिक्शा चलाते जाओ। मैं बता दूँगा कि किसके मकान पर जाना है?''

''बात यह नहीं है,'' उस आदमी ने पैडल चलाते हुए ही कहा, ''कल रात उस मोहल्ले के किसी घर में एक हादसा हो गया है। तभी तो हम पूछ रहे थे।''

बौखलाये बलराम का कलेजा अन्दर तक बर्फ जैसा सफेद हो गया। उसकी आवाज बैठ गयी। फिर भी उसने बड़ी मुश्किल से पूछा, ''आखिर क्या बात हो गयी, भाई?"

रिक्शावाले ने उसी जोश मैं कहा, ''कुछ लोग बताय रहै हैं, पाँव फिसल गया होगा और लोग बोल रहे हैं कि कतल का मामला है।...हम तो बाबू यही समझते हैं कि खून-युन ही किया गया होगा।...घर की वह...पतोहू को मार डालना तो आजकल कोड नयी बात नहीं रही...रोज का रिवाज हौ गया है।''

ऐसा जान पड़ा कि बहुत दूर से और बहुत आहिस्ता से यह सवाल पूछा गया,

''किसके घर की बात है?"

''अरे वही शशि कुण्डु के घर की बात है बाबू....गुड़ का कारबार करता रहा है। वैसे आनन्दमयी मोहल्ले में कपड़े की भी एक दूकान है। बात क्या है, बाबू...? आपकी कौनो जान-पहचान तो नहीं रही?''

बलराम एक तरह से ढेर हो चुका था। अचानक उसने अपने को सँभाला और जोर से फट पड़ा, "हां......परिचित है......एकदम अपने घर का आदमी है। रिक्शा और तेजी से चलाओ। आज मैं सबका खेल तमाम करके ही दम लूँगा।"

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