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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


घर के सामने सन्नाटा-सा छाया था।

दरवाजा अन्दर से बन्द। बलराम ने उसी जोम में दरवाजा ठेला और इसी के साथ जैसे सारा घर झनझना उठा।

''कौन है?'' भीतर से एक बीमार-सी आवाज सुन पड़ी। यह सवाल किसी स्त्री का था, जो न केवल कमजोर था बल्कि सहमा हुआ भी था।

''दरवाजा तो खोलिए...। मैं हूँ बलराम साहा...खागडा का...?''

दरवाजा धीरे-से खुल गया।

घर की पुरानी नौकरानी...कनाई की माँ एक किनारे हट गयी थी।...कनाई की माँ, जो बलराम को घ आता देख दरवाजा खेलने के साथ ही कभी खिलखिला उठती थी और मारे खुशी के चखिकर कहती थी, ''अरी आ भाभी, देखो तो सही, कौन आया है? बावा...हँऽ...समधी बाबू! लगता है, इससे बड़ी हाँडी आपके खागड़ा बाजार में नहीं थी शायद? विटिया रानी छेने की मिठाई कितना पसन्द करती हैँ...यह तो आपको पता है ही...ही...ही...।''

आज वह खिलखिलाहट गायब थी। वह एक चोरनी की तरह दीवार से सटकर खड़ी थी।

वह आदमी जो रिक्शा के ऊपर ही एक तरह से ढेर हो गया था...यहाँ शेर की तरह गरज रहा था। उसके हाथ में कोई हथियार तो नहीं था लेकिन स्थायी बन्दोबस्त के तौर पर छतरी तो थी ही। बलराम उसे ही ऊपर उठाये सदर दालान में दाखिल हो गया और ऊँची आवाज में चीखता रहा...''कहां है वे? कहां है? बाहर निकल हरामजादे.. कमीने...निकल बाहर। आ मैं तेरा खून पीकर फाँसी के फन्दे पर झूल जाऊँ!...बाहर तो निकल...शैतान...सुअर की औलाद...शराबी...हरामखोर कहीं के!''

घर के अन्दर एक-एक कमरे के सामने बलराम पाँव पटक-पटककर चीखता रहा।

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