कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
|
5 पाठकों को प्रिय 3465 पाठक हैं |
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
ट्रेन
के प्लेटफार्म पर रुकते ही बलराम हैरान रह गया। कैसे आश्चर्य की बात है!
जहाँ जो कुछ था....जैसा था....वैसा ही है। आम दिनों जैसा। यहाँ तक कि पान
की दुकान में ध्यानस्थ महादेव वाले कटे-फटे कैलेण्डर के सामने गेंदे के
फूलों की जो सूखी माला वह देख गया था वह अब भी वैसी ही झूल रही है।
सौदा-सुलफ करनेवाले लोग उसी जानी-पहचानी शैली में आ-जा रहे हैं। ऐसा लगता
है वह अभी-अभी यह सब देख गया है।
आँखों
के सामने ही साइकिल-रिक्शा का पड़ाव देखा जा सकता है। किसी-किसी
साइकिल-रिक्शा की घण्टी के सिर पर नाईलोन वाले झालरनुमा नीले फूल उड़ रहे
हैं। सब कुछ वैसा ही है....हू-ब-हू...जरा भी इधर-उधर नहीं। और ये कँगले
दलिद्दर स्साले...यही कहते हैं कि सारी दुनिया...धरती-आसमान-चाँद-सितारे
सब बदल गये हैं। जमाना बदल गया है।
ये सब स्साले...शैतान की
आँत हैं।
इन
सबकी पूरी तरह अनदेखी करते हुए बलराम तेजी से रिक्शा-पड़ाव की तरफ बढ़ आया।
वह एक रिक्शा पर बैठ गया और बोला, ''आनन्दमयी मोहल्ला चलो।''
''अरे, आप उधर कहीं चल
दिये, साहा बाबू?'' वह अभागा झबरे बाल वाला जैसे उसके पीछे-पीछे ही चल रहा
था।
''अब क्या बात है?''
बलराम ने तमककर पूछा।
''मैं
यह कह रहा था...पहले उधर जाना ठीक नहीं होता। अगर आप जल्दी निकल चलें तो
कचहरी अभी खुली मिलेगी। पहले उनके खिलाफ मामला ठोक देते और उसके बाद...''
यह
सुनकर झक्की बलराम कुछ ऐसा तिनक गया कि लगा वह इस छोकरे पर टूट पड़ेगा।
उसने कहा, ''लगता है...मैं तो एक नासमझ के पल्ले में पड़ गया। अरे
भाई...तुम लोग आखिर चाहते क्या हो? 'कौआ तेरा कान ले जा रहा है...' यह
सुनकर मैं कान पर हाथ न रखकर कौए के पीछे दौड़ने लगूँगा। अब जाओ भी...तुम
लोगों के मेरे पीछे पड़े रहने की ऐसी कोई जरूरत नहीं।''
|