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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


सामने चल रहे दो रिक्शों पर चार छोकरे ठीक-ठाक ही जा रहे थे। कोई गलत मकसद होता तो वे किसी तरह की चाल-बाजी करने से बाज आते भला? इस बीच वापस आकर कोई हंगामा खड़ा नहीं करते? कहीं....स्टेशन पहुँचकर मेरे सीने में कटार तो नहीं भोंक को और रुपये लेकर चम्पत हो जाएँगे...?....या फिर रेलगाड़ी पर सवार होकर...इसी भरी टुपहरिया में ही सरेआम हजारों लोगों के सामने...।

कृष्णनगर पहुँचकर.... ऐसा नहीं है कि बलराम साहा को ये गायब या अगवा कर सकें। कुष्णनगर तो वह बचपन से ही आते-जाते रहे हैं। और इधर पिछले कुछ वर्षों में बिटिया की शादी के समय सै ही इतनी बार आना-जाना हुआ है कि जिसकी गिनती नहीं है। मिठाई की हांडा, आम की टोकरी, और दादी के हाथों तैयार अचार-अमोट, बड़ी-पापड़ी तो आते ही रहे हैं। यहाँ उसके न जाने कितने लोग परिचित हैं।

तो फिर?

ये लोग किसी साहस के बूते पर मुझे कोई चश्का देकर कहीं दबोच पाएँगे? लगातार एक-टूसरे को काटनेवाली चिन्ता के साथ बलराम साहा उतगे बढ़ता गया। उसका इरादा एक बार मजबूत होता तो टूसरे ही क्षण ढह जाता।

बाजार में अकसर मिल जाने वाले शशांक की बात उसे याद आ गयी।

''दिनोंदिन यह क्या होता जा रहा है बलराम दा....आँय। अखबार खोला नहीं कि किसी की बीवी के कल का समाचार....शहरों में....कस्बों में...बड़े-बड़े घरों में....ऊँचे घरानों में। और ऐसे हादसे बढ़ते-बढ़ते ही चले जा रहे हैं। बीबी को जान से मार डालना ही आजकल का लेटेस्ट फैशन हो गया है जैसे....आँय। है कि नहीं?'' उस दिन शशांक की बात पर उसने बहुत ध्यान नहीं दिया था। लेकिन आज वह याद आ रही है।

ये छोकरे....स्साले....टिकट कटाकर ट्रेन में कभी नहीं बैठते लेकिन जब बलराम ने पाँच टिकट कटाने को रुपये बढ़ा दिये तो कोई चारा न था और न ही रुपये गायब करने की नौबत आयी।

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