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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


श्रीकुमार के छोटे भाई सुकुमार की पत्नी आभा। वह उस दिन दालान के एक छोर पर बैठकर पान बना रही थी। जेठ जी के बाहर निकल जाते ही उसने सामने बैठी फुफेरी ननद नन्दा की ओर भँवें तिरछी कर देखा और हौले से मुस्करायी।

इस मुस्कान का मतलब था 'देख लिया न...जैसा बताया था ठीक वैसा ही निकला न...?'

नन्दा ने गाल पर हाथ टिकाकर हैरानी दिखायी और जिस तरह की मुद्रा बनायी उसे शब्दों में बांधा जाए तो कुछ इस तरह कहा जाएगा, 'ओ माँ...सचमुच...वैसा ही। अब भी.. इस उमर में...ओ.. हो...!'

नन्दा इस घर में बहुत दिनों के बाद आयी थी।

जब मामा-मामी जीवित थे तो वह प्रायः यहाँ आया करती थी। चूँकि वह बचपन में ही विधवा हो गयी थी इसलिए इस घर में उसका आदर और जतन किया जाता था। हालाँकि ममेरे भाइयों में उसके प्रति कोई विशेष उत्साह न था कि वे उसकी अगवानी यह कहकर करें कि 'आओ, लक्ष्मी बहना!' बल्कि 'जल्दी टले तो जान बचे' वाली बात ही उनके मन में रहती। इसलिए नन्दा भी उखड़े मन से ही यहाँ आया करती।

लेकिन अबकी बार वह चाहकर ही आयी है।

हालाँकि यहाँ आकर उसने घण्टा भर के लिए भी अपने को किसी नये मेहमान की तरह कोने में सहेज नहीं रखा। नन्दा जैसी फुर्तीली और मुखर स्त्रियों के लिए अपनी जगह बना लेने में कोई ज्यादा देर नहीं लगती।

आते ही भावजों की चुटकी लेते हुए कहती, ''लोग ठीक ही कहते हैं, 'भाई का भात भावज के हाथ।' अरे बहूरानियों, तुम दोनों धन्य हो! इस जनमजली ननद की खोज-खबर तक लेती हो कभी? मेरे दोनों भोले-भाले भाइयों को आँचल में बाँध रखा है। कभी भूलकर भी...?''

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