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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


अनजाने में ही बलराम का एक हाथ कमर की गाँठ पर चला गया।...आज ही दूकान पर कुछ व्यापारियों और महाजनों के आने की बात है। वे माल लेकर आएँगे। साथ में साढ़े चार हजार रुपये हैं इन छोकरों को इस बात की टेर तो नहीं लगी कहीं? बलराम यह समझ नहीं पा रहा है कि क्या करे? और इधर सीने में अजीब-सा तूफान मचल रहा था। उसे अपने चारों ओर अँधेरा-ही-अँधेरा नजर आ रहा था और इसके ऊपर भी सन्देह का घना कोहरा।

''ठीक है...आप चल नहीं रहे...अच्छा!...''

और इसके साथ ही लड़के बढ़ने लगे।

वे थोड़ा-सा आगे बढ़े ही थे कि बलराम ने हाथ उठाकर पुकारा, ''अरे बच्चो...सुनो। थोड़ा-सा तो रुको...सुनो।''

झबरीले बालों वाला पास आ गया।

बलराम उसके हाथ को अपने हाथों से थामकर रोने लगा। फिर सुबकते हुए कहा, ''धरम के नाम पर दुहाई है...सच-सच बताना....क्या मेरी बेटी सचमुच मारी गयी है?''

''झूठ कहने पर हमें क्या मिलेगा?''

''तो फिर चलो, तुम सबके साथ ही चलता हूँ। बिटिया को आखिरी बार देख तो लूँ...।'' कहते-कहते बलराम एक बार फिर रुका। उसने कुछ सोचकर आगे कहा, ''अगर तुम लोगों में कोई एक आदमी मेरे घर जाकर मेरे जाने के बारे में बता आए तो बड़ा अच्छा हो। घर में मेरी माँ और विधवा बहन है। मेरे घर वापस न लौटने पर वे दोनों मारे चिन्ता के दम तोड़ देंगी।....उनसे कहना है कि मैं किसी जरूरी काम से रानाघाट जा रहा हूँ...वापस न लौटूँ तो चिन्ता न करें।''

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