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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


अब की बलराम वहीं बैठ गया। एकदम बीच सड़क पर ही नहीं...पास ही एक मकान की ड्योढ़ी पर।...उसने उखड़े स्वर में पूछा, ''तुम लोगों ने अपनी आँखों से देखा था...? खून किसने किया था?''

''अब...आपको क्या बताएँ...आपके ही जमाई बाबू शरत ने।''

बलराम की आँखों के सामने अपने जमाई शरत की तसवीर उभर आयी। गोल गाल...भरा-पूरा चेहरा...गोपाल मार्का। घुँघराले बाल...उन्हें लच्छों की तरह माथे पर तह कर जमाये। गोरा शरीर...ताजा खोबे की तरह। विवाह के समय जिसने भी देखा था...उसकी आंखें जुड़ा गयी थीं। और...वही खीर-मलाई के पुतले जैसा लड़का...? असम्भव...।

बलराम ने अपने को सँभालने की कोशिश की। फिर कहा, ''तुम लोगों ने जब यह देखा कि पति अपनी पत्नी की हत्या कर रहा है तो तुम लोग यह तमाशा देखते रहे? कैसे मारा...भुजाली से या किसी छुरे-बुरे...?''

झबरीले वालोंवाले लड़के को छोड़कर बाकी सारे लड़के मुँह बिचकाये और चुप्पे-से खड़े थे गुस्से में भरे। उन्होंने सोचा था कि यह आदमी उन्हें बड़े प्यार और आदर से बिठाएगा...धन्यवाद देगा, फिर बड़ी उतावली के साथ एकदम से साथ चलने को तैयार हो जाएगा...लेकिन ऐसा कहीं हुआ? वह तो एक-एक बात कुरेद-कुरेदकर पूछ रहा है।

झबराले बालोंवाला ठण्डे मिजाज का लगा। उसने कहा, ''आप जिस तरह से बोलते चले जा रहे हैं, उससे तो हमीर लिए कुछ बताना या कहना ही मुश्किल है। लेकिन जबकि हम लोग इतनी परेशानी झेलते हुए कृष्णनगर से खागड़ा तक आये हैं...आपको सारी बात बताकर ही जाएँगे।...आपको पता हो या न हो लेकिन बात यह थी कि इस बीच शरत कण्ड की भींग-चरस पीने की आदत बहुत ज्यादा बढ़ गयी थी। इसी लत के चलते वह आधी-आधी रात के बाद आने लगा था। और इसे लेकर बाप-बेटे में खूब कहा-सुनी हुआ करती।...खैर! गर्मी और उमस की वजह से लगभग सभी घरों में छत पर बिछौने डाले जाते हैं। हमारे घरों में भी ऐसा ही किया जाता है। हमारा घर कुण्डु के घर के बगल में ही है। गर्मी कम हो जाने के बाद जब सभी सो रहे थे...अचानक कुण्डु के घर की छत पर पागलों की-सी भयंकर चीख-पुकार शुरू हुई।

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