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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


दूसरे ही क्षण बलराम ने अपने मन को मजबूत किया...यह नामुमकिन है? पागलों की-सी बात है। ऐसा क्या हो जाएगा कि तुम्हारी बिटिया की हत्या हो जाए। आखिर कौन उसका कल करने आएगा...और क्यों? और शशि कुण्डु तो उसकी वेटी को सगुनिया मानकर उसे लक्ष्मी बहू कहता अघाता नहीं। बेटे की शादी के बाद से ही उसके कारोबार में खासा मुनाफा हुआ है। सास अगर अपनी पतोहू को बाप के घर नहीं आने देती तो इसमें उसका अपना ही स्वार्थ है...और क्या? बहू की हत्या से उसका कौन-सा भला हो जाएगा? और जहाँ तक जमाई बाबू का सवाल है, उसकी बात न की जाए तो वेहतर है। सुना है कि वह बाप के कारोबार से जी चुराता रहता है। बस मौज-मस्ती की महफिलों में खोया रहता है।...इस बेसिर-पैर की खबर और कुछ नहीं, किसी दुश्मन के खेमे की कुटिल चाल जान पड़ती है।

यह सम्भव है कि इस दुश्मनी खेमे में शशि कुण्डु भी शामिल हो। बलराम के जानते आदमी तो भला है। लेकिन ऐसे सज्जनों के भी दुश्मन हो सकते हैं। और ऐसे बुरे लोगों की कम-से-कम इस दुनिया में कोई कमी नहीं है। गुड़ और कपड़ा इन दोनों ही के कारोबार में कुण्डु महाशय ने खासी कमाई की है। दुश्मनों के तन-बदन में आग न लगे...यह कैसे सम्भव है?

लड़कों को हैरानी हुई।

भला कैसा है यह आदमी...?.. न तो बुक्का फाड़कर रोया...न छाती पीटकर चीखा...ऐसा भी नहीं जान पड़ता कि बहुत परेशान हुआ हो। कैसा है यह पत्थर-दिल इन्सान! लड़के एक-दूसरे का हैरानी से मुँह देख रहे थे।...हालाँकि इस खबर के साथ ऐसा जरूर लगा कि इसे बिजली का झटका लगा हो। बात क्या है...क्या वह इन लोगों की बात का विश्वास नहीं कर पा रहा है?

हो सकता है।

बलराम ने उन सबको उड़ती नजर से देखा और कहा, ''तुम लोग तो कुण्डु महाशय के घर-परिवार के ही आदमी हो न?''

वे लोग उखड़े स्वर में बोले, ''हम उनकी जात-बिरादरी के नहीं हैं...एक ही मोहल्ले के रहनेवाले हैं। अपनी आँखों के सामने ही हमने उसका कल होते देखा था। हमें पता है, वह आपकी इकलौती बेटी थी...हमें ऐसा लगा कि आपकों यह खबर पहुँचा देनी चाहिए...इसीलिए...। अब आप पर है कि आप इस मानें या न मानें।''

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