कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
ऐश्वर्य
श्रीकुमार के सीढ़ी से उतरकर बरामदे से गुजरते ही चारों तरफ कीमती सेण्ट की खुशबू फैल गयी। देह पर चुन्नटदार मलमल का कुरता और चुन्नट की हुई धोती का तहदार और लहराता सिरा जमीन पर लोट-लोट जाता था। पैरों में बेशकीमती ग्रेशियन जूती और चाँदी की मूठवाली छड़ी थामे श्रीकुमार तेजी से नीचे उतर गये।वे रोज ही इसी तरह निकल जाते हैं।
पिछले अठारह सालों से जाते रहे हैं। लगातार।
और चाहे सारी दुनिया ही क्यों न बदल जाए, श्रीकुमार की चर्या बदल नहीं सकती। न तो इस नियम का उल्लंघन हुआ है और न सज-धज में कोई परिवर्तन। और इसमें बदलाव के बारे में किसी ने शायद कभी सोचा भी नहीं।
पच्चीस साल की उम्र से ही, वे इसी सज-धज के साथ, नियत समय पर और एक नियत ठिकाने पर हाजिरी बजा लाते हैं।
उनके घर से निकलने और घर वापस आने का समय भी घड़ी देखकर ही तय है जैसे। रात के आठ बजे से दस बजे तक। कुल मिलाकर दो घण्टे।
वे कहीं जाते हैं, यह कोई दबी-छिपी बात नहीं लेकिन इस बारे में कोई कुछ कहता नहीं।
सभी इस बारे में जानते हैं लेकिन साफ-साफ कोई बताना नहीं चाहता।
शायद इसलिए बताया नहीं जाता ताकि घर के मालिक का सम्मान बना रहे और घर की मालकिन का भी। लेकिन सवाल यह है कि अपर्णा इस तरह की प्रचलित सम्मान-असम्मान से भरी दुनिया में रहती भी है? यहाँ की जमीन पर खड़े होकर और हाथ बढ़ाकर उसका सिरा पा लेना क्या इतना ही आसान है?
जबकि आभा ने तो असम्मान की पहल करके भी देख लिया।
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